“भारत की मूलभूत संकल्पना में संघात्मकता अंतर्निहित है और उसे एक राष्ट्र के रूप में कल्पित नहीं किया गया है बल्कि राज्यों के एक ऐसे संघ के रूप में कल्पित किया गया है जिनकी अपनी विशिष्टताएं और विविधताएं हो सकती हैं। भारत की संकल्पना इस रूप में किया जाना इसलिए ज़रूरी था कि भारत हमेशा अपनी विविधताओं के लिए जाना जाता रहा है। भौगोलिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषायी दृष्टि से उसमें इतनी अधिक विविधता है कि उनको एक साथ और एकजुट रखने का आधार उनकी विशिष्टताओं और विविधताओं को स्वीकार करने के साथ-साथ उन्हें एक समान मानकर ही किया जा सकता है।”–जवरीमल्ल पारख के आलेख का दूसरा भाग :
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भाग-2
संविधान और स्वतंत्र भारत में वैचारिक संघर्ष
हम इस विषय पर आगे बढ़ें, उससे पहले स्वतंत्र भारत की संकल्पना संविधान में किस रूप में की गयी है, इसे समझना ज़रूरी है। संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है, न कि एक राष्ट्र। संविधान के अनुसार इंडिया अर्थात् भारत राज्यों का एक संघ है। यह संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक स्वतंत्र प्रभुसत्तासंपन्न समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधान के अनुसार शासित है जिसे संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को ग्रहण किया गया तथा जो 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। संविधान संसदीय प्रणाली की सरकार प्रदान करता है जो कुछ एकात्मक विशिष्टताओं के साथ अपनी संरचना में संघात्मक (फे़डेरल) है। इन बातों से स्पष्ट है कि भारत की मूलभूत संकल्पना में संघात्मकता अंतर्निहित है और उसे एक राष्ट्र के रूप में कल्पित नहीं किया गया है बल्कि राज्यों के एक ऐसे संघ के रूप में कल्पित किया गया है जिनकी अपनी विशिष्टताएं और विविधताएं हो सकती हैं। भारत की संकल्पना इस रूप में किया जाना इसलिए ज़रूरी था कि भारत हमेशा अपनी विविधताओं के लिए जाना जाता रहा है। भौगोलिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषायी दृष्टि से उसमें इतनी अधिक विविधता है कि उनको एक साथ और एकजुट रखने का आधार उनकी विशिष्टताओं और विविधताओं को स्वीकार करने के साथ-साथ उन्हें एक समान मानकर ही किया जा सकता है। संविधान की प्रस्तावना में इसी भावना की अभिव्यक्ति हुई है। यहां संविधान की प्रस्तावना को उद्धृत करना उपयुक्त होगा जो आज़ाद भारत की बुनियाद है और जिसके द्वारा इन 75 सालों में हमने जो भी प्राप्त किया है, जितना आगे बढ़े हैं और इस दौरान हम अपनी मंज़िल से जितना भटके हैं उसको समझा जा सकता है :
हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए; तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवंबर 1949 को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
तीन सौ सदस्यों की संविधान सभा ने लगभग तीन साल लंबे विचार-विमर्श के बाद 26 नवंबर 1949 को संविधान स्वीकार कर लिया था। इस संविधान सभा में समाज के लगभग सभी वर्गों और समुदायों का प्रतिनिधित्व था और उन्होंने खुलकर अपने विचार पेश किये थे। संविधान सभा द्वारा नियुक्त प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. आंबेडकर थे जिन्होंने संविधान को अंतिम रूप प्रदान किया था। संविधान सभा द्वारा पारित संविधान को 26 जनवरी 1950 से पूरे देश में लागू कर दिया था। संविधान सभा ने सर्वसम्मति से जिस तरह के भारत की संकल्पना की थी उसकी आधारभूत विशिष्टता प्रस्तावना में अभिव्यक्त हुई है। यह संकल्पना किसी विदेशी प्रभाव का नतीजा नहीं थी बल्कि भारत का जो बहुभाषिक, बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक चरित्र हज़ारों सालों में निर्मित हुआ था उसी को संरक्षित करने की कोशिश इस संविधान के द्वारा की गयी थी। ऐसा करते हुए उन्होंने संविधान के द्वारा एक आधुनिक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज बनाने का प्रयत्न भी किया था ताकि यहां रहने वाले सभी जनसमुदाय बराबरी की भावना लेकर एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रह सकें और हमारे समाज में गहरे तक जड़बद्ध आंतरिक कमज़ोरियों से मिलजुल कर मुक्त होते हुए जिसमें धर्म, जाति, नस्ल, क्षेत्र, जेंडर, भाषा और संस्कृति के आधार पर ऊंच-नीच का भाव भी शामिल है, उसे मिटाने का सामूहिक प्रयास कर सकें।
यही वजह है कि प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से एक न्यायपूर्ण समाज बनाने की बात कही गयी है। इसी तरह प्रत्येक भारतीय को अपने विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता की बात भी कही गयी है। यहां किसी ख़ास विचार, किसी ख़ास धर्म, किसी ख़ास उपासना पद्धति की बात नहीं कही गयी है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की जो भी सोच हो, जिस धर्म में विश्वास करता हो (या न करता हो), जिस पद्धति से उपासना करता हो (या न करता हो) और जिस तरह से चाहे अपने को अभिव्यक्त करना चाहता हो, उसकी स्वतंत्रता हमारा संविधान हमें देता है। यह प्रस्तावना हमें स्टेटस और अवसर की भी समानता देता है यानी कि किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, लिंग, नस्ल के आधार पर किसी भी क्षेत्र में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जायेगा; साथ ही संविधान की नज़र में प्रत्येक नागरिक का स्टेटस एक-सा ही माना जायेगा। इस प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करते हुए सभी के बीच बंधुत्व का भाव सुनिश्चित किया जायेगा।
इसी प्रस्तावना के आलोक में संविधान में वर्णित मूल अधिकारों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। संविधान में समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म संबंधी स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार मूल अधिकारों के अंतर्गत शामिल किया गया है और इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि ये मूल अधिकार दरअसल प्रस्तावना की भावना को ही और विस्तार देते हैं और इन्हें मूल अधिकार कहकर प्रत्येक नागरिक के लिए इनकी गारंटी को सुनिश्चित कर दिया गया है।
यहां यह भी रेखांकित करने की ज़रूरत है कि इन अधिकारों को अमूर्त नहीं छोड़ा गया है बल्कि उनकी स्पष्ट व्याख्या की गयी है। उदाहरण के लिए जहां समानता के मूल अधिकार की बात की गयी है उसके साथ कई अनुच्छेद (14 से 18) जोड़े गये हैं। समानता के अधिकार का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे उसका धर्म, जेंडर, जाति, नस्ल या जन्म का स्थान कुछ भी क्यों न हो क़ानून के सामने समान है (आर्टिकल 14)। यह जाति, धर्म, लिंग, नस्ल इत्यादि के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव का निषेध करता है और भेदभाव के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है (आर्टिकल 15)। यह अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को सरकार में रोज़गार के समान अवसर प्रदान करता है (आर्टिकल 16) और यह अधिकार छुआछूत का उन्मूलन करता है (आर्टिकल 17)। इसी तरह स्वतंत्रता के मूल अधिकार के आर्टिकल 19 का उल्लेख आवश्यक है जिसमें बोलने का अधिकार, अभिव्यक्ति का अधिकार, शांतिपूर्वक और बिना हथियारों के एकत्र होने का अधिकार, संगठन बनाने का अधिकार, कोई भी व्यवसाय करने का अधिकार और देश के किसी भी भाग में रहने और आने-जाने का अधिकार शामिल है। आर्टिकल 21 में प्रत्येक व्यक्ति को जीने का अधिकार दिया गया है। हालांकि इन स्वतंत्रताओं के साथ कुछ शर्तें भी जोड़ दी गयी हैं जिसका लाभ सत्ताएं इन स्वतंत्रताओं में कटौती करने के लिए करती रही हैं।
संविधान में मूल अधिकारों का ही उल्लेख नहीं है, साथ ही नागरिकों के कर्त्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। कर्त्तव्यों के अंतर्गत भारत के नागरिकों के बीच सामंजस्य और पारस्परिक भाईचारा को प्रोत्साहित करना भी शामिल हैं, चाहे उनका धर्म और भाषा कुछ भी क्यों न हो, वे किसी भी क्षेत्र के रहने वाले क्यों न हों और उनमें कितनी भी भिन्नता क्यों न हो। स्त्रियों की गरिमा को कम करने वाले रीति-रिवाजों को त्यागने की बात भी कही गयी है। इसी तरह कर्त्तव्यों के अंतर्गत हमारी मिलीजुली संस्कृति की समृद्ध परंपरा को संरक्षित और महत्त्व देने की बात भी कही गयी है। इसमें हमारे प्राकृतिक पर्यावरण को संरक्षित और समृद्ध करने को भी शामिल किया गया है। इसीके अंतर्गत वैज्ञानिक सोच, मानववाद और प्रश्न पूछने और सुधार करने की भावना को विकसित करने की बात भी कही गयी है। संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकारों और कर्त्तव्यों का उल्लेख करने का मक़सद यही है कि इनके द्वारा हम समझ सकते हैं कि देश को न केवल भौतिक रूप से समृद्ध बनाने पर ही बल नहीं दिया गया है बल्कि एक ऐसा देश बनाने पर भी बल दिया गया है जो भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद अपनी परंपराओं का संरक्षण करते हुए भी एक आधुनिक, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समता पर आधारित न्यायपूर्ण समाज बन सके। लेकिन प्रश्न यही है कि आज़ादी हासिल करने के 75 साल बाद क्या दावे के साथ कह सकते हैं कि हमने उस भारत को हासिल कर लिया है जिसकी संकल्पना संविधान में की गयी है। अगर हम पूर्ण रूप से न सही लेकिन क्या उस रास्ते पर आगे बढ़ते नज़र आ रहे हैं, या ऐसा तो नहीं है कि हम कुछ क़दम आगे बढ़ने के बाद पीछे की तरफ़ जाने को ही अपनी प्रगति समझ रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि आज उन हम ताक़तों द्वारा शासित हो रहे हैं जिनका आज़ादी की लड़ाई में किसी तरह का योगदान नहीं रहा है और नहीं जिनका संविधान पर कभी विश्वास रहा है?
दरअसल, संविधान में जो कुछ भी लिखा गया है वह उन सर्वोच्च मस्तिष्कों के सामूहिक चिंतन का नतीजा था जिनमें से ज़्यादातर ने आज़ादी की लड़ाई में भाग भी लिया था और उससे जो सबक़ उन्होंने हासिल किया था, वह भी उनके सामने मौजूद था। इस सभा में ऐसे विद्वान भी थे जिन्होंने देश की हज़ारों सालों की परंपरा को समस्त अंतर्विरोधों के साथ विवेकपूर्ण ढंग से आत्मसात भी किया था। यही नहीं उन्होंने दुनिया के अन्य देशों में जो बदलाव पिछली कुछ शताब्दियों में हुए थे, उनको भी सावधानीपूर्वक और गहराई से समझने का प्रयास किया था। और इस समस्त ज्ञान के सर्वोत्तम अंश को इस संविधान में इस ढंग से अभिव्यक्त किया गया था जैसाकि शायद ही दुनिया के किसी अन्य संविधान में किया गया हो। इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि अभी हाल ही में आज़ाद हुआ देश जो विभाजन की भयावह त्रासदी से गुज़रकर आया हो और जहां की बहुसंख्यक जनता ग़रीबी, अशिक्षा और सामाजिक पिछड़ेपन में गहरे तक धंसी हो, वह इस महान ग्रंथ में कही गयी बातों को आत्मसात करने की क्षमता हासिल कर चुका होगा। दरअसल, इस देश की जनता के पास जो चीज़ थी, वह थी आज़ादी की लड़ाई के उन नायकों पर भरोसा। उन्हें विश्वास था कि वे जो भी करेंगे हमारे हित में करेंगे। उन्हें हमारे धर्म, हमारी जाति, हमारी भाषा और हम स्त्री हैं या पुरुष और जहां हम रहते हैं, उनके कारण हमें किसी ऐसे अधिकार से वंचित नहीं किया जायेगा जो दूसरे नागरिकों को हासिल है। उन्हें यह भी यक़ीन था कि हमें दूसरों से कमतर नहीं समझा जायेगा और हम जो दूसरों से पीछे छूट गये हैं, वे हमारे लिए कुछ ऐसे क़दम ज़रूर उठायेंगे जिनकी मदद से हम दूसरों के समकक्ष पहुंच सकेंगे। उनके इस विश्वास की पहली परीक्षा 1952 में तब हुई जब पहला चुनाव हुआ और प्रत्येक बालिग भारतीय जिसका धर्म कुछ भी क्यों न रहा हो, जिसकी जाति कुछ भी क्यों न रही हो, जो देश के किसी इलाक़े में रहते हों, स्त्री हो या पुरुष सबको वोट डालने का न केवल अधिकार मिला, उन्होंने वोट डाला भी और हरेक ने महसूस किया कि वे इस देश में, यहां के संविधान के समक्ष एक हैं और समान हैं।
इसके बावजूद यह मान लेना सही नहीं होगा कि संविधान की आत्मा को भारत के आम लोगों ने आत्मसात कर लिया था। जैसाकि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं कि देश में ऐसे बहुत से लोग, समूह और संगठन थे जो संविधान के प्रावधानों से पूरी तरह सहमत नहीं थे। कांग्रेस जिसकी देश की आज़ादी की लड़ाई में सबसे बड़ी भूमिका रही थी और संविधान निर्माण में भी सबसे बड़ा योगदान था, उसके नेतृत्व में ही ऐसे बहुत से लोग थे जिनका झुकाव दक्षिणपंथ और सांप्रदायिकता की ओर था। जवाहरलाल नेहरू जो कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता थे, संविधान की मूल संकल्पनाओं में उनकी आस्था के प्रति किसी तरह का संदेह नहीं था। लेकिन उनके ईर्द-गिर्द ज़्यादातर नेता वैचारिक दृष्टि से उनसे दूर और कुछ हद तक विरोधी भी थे। आज़ादी के आरंभिक चार-पांच सालों तक ऐसे दक्षिणपंथी नेताओं का कांग्रेस के संगठन पर वर्चस्व था। पुरुषोतम दास टंडन जैसे कुछ हद तक सांप्रदायिक, हिंदूपरस्त और परंपरावादी नेता सरदार पटेल के समर्थन से अगस्त 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष बनाये गये जबकि 1949 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद में ‘रामलला’ की मूर्ति चुपके से रखवाने में कहीं न कहीं उनकी भूमिका भी थी।
जवाहरलाल नेहरू के बाद कांग्रेस के दूसरे सबसे प्रभावशाली नेता सरदार पटेल जिन्हें कांग्रेस के संगठन के अंदर नेहरू की तुलना में ज़्यादा समर्थन हासिल था, उनका झुकाव भी दक्षिणपंथ की तरफ़ था और हिंदू सांप्रदायिकता के मसले पर भी उनका रवैया अपेक्षाकृत नरम रहता था। एक अन्य नेता डॉ. राजेंद्र प्रसाद जो संविधान सभा के अध्यक्ष बनाये गये थे और बाद में वे देश के प्रथम राष्ट्रपति बने, उनमें भी धर्मनिरपेक्षता के प्रति वैसी आस्था नहीं थी, जैसी नेहरू की थी। इतिहास की उनकी समझ भी सांप्रदायिक सोच से प्रेरित थी। गुजरात में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करने की शुरुआत 1947 में सरदार पटेल के प्रयासों से हुई थी जिन्होंने कांग्रेस के एक अन्य दक्षिणपंथी नेता के. एम. मुंशी को मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य सौंपा। 1951 में इस मंदिर का उद्घाटन होना था और इसके लिए राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को आमंत्रित किया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को सलाह दी थी कि वे मंदिर के उद्घाटन में शामिल न हों, जिसके दुर्भाग्यजनक रूप से कई मतलब निकाले जायेंगे (भारत : गांधी के बाद, रामचंद्र गुहा से उद्धृत, अनुवाद : सुशांत झा, पेंगुइन बुक्स, गुड़गांव, 2012, पृ. 163)। नेहरू की इस सलाह को दरकिनार रखकर राजेंद्र प्रसाद उद्घाटन समारोह में शामिल हुए।
बी. आर. आंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू आरएसएस को देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा समझते थे। आंबेडकर ने तो 1946 में ही कह दिया था कि ‘यदि हिंदू राज किसी दिन वास्तविकता बनता है, तो निस्संदेह इस देश के लिए बहुत बड़ी आपदा होगी…किसी भी क़ीमत पर हिंदू राज बनाये जाने से बचाया जाना चाहिए’ (पाकिस्तान ओर दि पार्टिशन ऑफ इंडिया’ से उद्धृत)। लेकिन पटेल सहित कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेताओं की नज़र में सबसे बड़ा ख़तरा कम्युनिस्टों से था। कांग्रेस के इन नेताओं की कम्युनिस्टविरोधी भावना को देखकर ही आरएसएस के सरसंघ चालक एम.एस.गोलवलकर ने पटेल को लिखे 24 सितंबर 1948 के एक पत्र में आरएसएस पर प्रतिबंध के चलते युवाओं के साम्यवाद के प्रभाव में आ जाने के ख़तरे की ओर ध्यान दिलाते हुए यह सुझाव दिया था कि ‘अगर आपकी सरकार की ताक़त और हमारा संगठित सांस्कृतिक बल एकजुट हो जायें तो हम बहुत जल्दी ही इस ख़तरे को ख़त्म कर सकेंगे’ (दि आरएसएस : ए मेनेस टू इंडिया, ए. जी. नूरानी, 2019, लेफ़्टवर्ड, नयी दिल्ली, पृ. 452)। इससे कुछ ही दिनों पहले (11 सितंबर, 1948) ‘भाई गोलवलकर’ को लिखे एक पत्र में स्वयं पटेल उन्हें यह सुझाव दे चुके थे कि आरएसएस के लोगों को कांग्रेस में शामिल हो जाना चाहिए। उन्हीं के शब्दों में, ‘मुझे इस बात का पूरा यक़ीन है कि आरएसएस के लोग अपने देशभक्ति के प्रयासों को कांग्रेस से अलग रहकर या उसका विरोध करके नहीं बल्कि उसमें शामिल होकर ही आगे ले जा सकेंगे’ (ए. जी. नूरानी, पृ. 454)। एक सांप्रदायिक फ़ासीवादी संगठन से जुड़े लोगों को कांग्रेस में शामिल होने का निमंत्रण देना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व में नेहरू जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर नेता न केवल दक्षिणपंथी थे वरन हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिकता और रूढ़िवाद के गहरे प्रभाव में भी थे। उस दौर में कांग्रेस के बहुत से नेता जो समाजवादी होने का दावा करते थे, उन्होंने यह कहकर कांग्रेस छोड़ दी कि उस पर दक्षिणपंथियों का वर्चस्व है। ख़ासतौर पर तब जब अगस्त 1950 में सरदार पटेल के समर्थन से पुरुषोतमदास टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। यह नेहरू के लिए बहुत बड़ा सदमा था। जब समाजवादी कहे जाने वाले नेता भी कांग्रेस छोड़ने लगे तो नेहरू बिल्कुल अलग-थलग पड़ गये थे।
यहां यह कहने की कोशिश नहीं है कि कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेता देशभक्त नहीं थे। इन सभी नेताओं ने आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था और जेल भी गये थे। आरएसएस की तरह वे आज़ादी की लड़ाई से अलग नहीं रहे थे लेकिन उनकी विश्वदृष्टि नेहरू से ही नहीं, महात्मा गांधी से भी काफ़ी दूर थी और गांधीजी उनकी इस वैचारिक सीमा को पहचानने लगे थे। यही वजह है कि महात्मा गांधी ने निराश होकर कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी, तो दूसरी ओर, वे यह भी पहचान गये थे कि नेहरू ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो विविधताओं से भरे इस देश को एकजुट भी रख सकते हैं और प्रगति के रास्ते पर आगे भी ले जा सकते हैं। यही वजह है कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए जवाहरलाल नेहरू का नाम प्रस्तावित किया। कांग्रेस पर दक्षिणपंथी नेताओं का वर्चस्व ज़रूर था, लेकिन पटेल को छोड़कर कोई भी लोकप्रियता में नेहरू के समकक्ष नहीं था। पटेल काफ़ी लोकप्रिय थे, लेकिन नेहरू से अपेक्षाकृत कम। नेहरू और पटेल बहुत से मामले में एक दूसरे के विपरीत विचारों के थे लेकिन दोनों में इतनी परिपक्वता ज़रूर थी कि वे मिलजुल काम कर सकते थे। लेकिन 1950 के दिसंबर महीने में पटेल का देहांत हो गया।
1951 में आम चुनाव की चर्चा तेज़ होने लगी थी। नेहरू को यह महसूस होने लगा था कि कांग्रेस को दक्षिणपंथियों और सांप्रदायिक तत्वों के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता। उनके बदले हुए रवैये के कारण टंडन के लिए काम करना मुश्किल हो गया और उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। कांग्रेस के अध्यक्ष पद की बागडोर भी नेहरू के हाथ में आ गयी। उन्हीं के नेतृत्व में 1952 में आम चुनाव लड़ा गया जिसमें कांग्रेस को भारी बहुमत के साथ विजय मिली। नेहरू ने इस चुनाव में प्रचार के लिए लगभग बीस हज़ार मील की यात्रा की। उन्होंने अपने भाषणों में सबसे अधिक प्रहार सांप्रदायिकता पर किया था। नेहरू ने अपने एक भाषण में आंबेडकर की ही बात को दोहराते हुए कहा था, ‘शैतानी सांप्रदायिक तत्व अगर सत्ता में आ गये तो देश में बर्बादी और मौत का तांडव लायेंगे’ (भारत : गांधी के बाद, रामचंद्र गुहा, पृ. 173)। इसी तरह एक अन्य भाषण में उन्होंने कहा था, ‘अगर कोई भी आदमी किसी दूसरे आदमी पर धर्म की वजह से हाथ उठाता है तो मैं सरकार के मुखिया होने के नाते और सरकार से बाहर भी ज़िंदगी की आख़िरी सांस तक उससे लड़ता रहूंगा’ (वही, रामचंद्र गुहा, पृ.174)। भारतीय जनसंघ जिसकी स्थापना अक्टूबर 1951 में हुई थी और जो सांप्रदायिक फ़ासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा था, उसके बारे में नेहरू को किसी तरह का भ्रम नहीं था। बंगाल में उन्होंने कहा था कि जनसंघ आरएसएस और हिंदू महासभा की नाजायज़ औलाद है (वही, रामचंद्र गुहा, पृ. 174)।
1951-52 में लोकसभा की 489 सीटों पर चुनाव हुआ था जिसमें से अकेले कांग्रेस ने 364 सीटों पर विजय प्राप्त की थी जो कुल सीटों की 74.4 प्रतिशत थी। कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारों वाली पार्टियों ने भी लगभग 50 सीटें जीती थीं। 10 सीटें भारतीय जनसंघ, हिंदू महासभा और रामराज्य परिषद ने जीती थीं। वोटों के प्रतिशत के हिसाब से कांग्रेस ने लगभग 45 प्रतिशत, कम्युनिस्टों और अन्य वामपंथी पार्टियों ने लगभग 30 प्रतिशत और दक्षिणपंथी हिंदुत्वपरस्त पार्टियों ने लगभग 6 प्रतिशत वोट प्राप्त किये। शेष वोट क्षेत्रीय और बहुत छोटी पार्टियों को मिले। अगर धर्मनिरपेक्ष वोटों की बात की की जाये तो 85 से 90 प्रतिशत वोट धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को मिले। 1957 में हुए दूसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को तीन प्रतिशत वोट 1952 से ज़्यादा पड़े जिसके कारण कांग्रेस के वोटों और सीटों में बढ़ोतरी हुई। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 45 से बढ़कर 48 हो गया और सीटें 364 से बढ़कर 371 हो गयी। कम्युनिस्ट पार्टी के वोट 3.29 से बढ़कर 8.92 और सीटें 16 से बढ़कर 27 हो गयीं। भारातीय जनसंघ के वोट में लगभग 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई और सीटें 3 से बढ़कर 4 हो गयीं। लेकिन हिंदू महासभा की सीटें और वोट दोनों में काफ़ी गिरावट आयी और रामराज्य परिषद कोई भी सीट नहीं जीत सकी। इस तरह 1957 तक आते-आते हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक पार्टी का प्रतिनिधित्व भारतीय जनसंघ में सिमट गया। हालांकि कुल वोट दो प्रतिशत बढ़ गया। वामपंथी और समाजवादी पार्टियों की सीटें और वोट प्रतिशत कमोबेश वही रहा लेकिन सीटें कम्युनिस्ट पार्टी की काफ़ी बढ़ीं और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के रूप में समाजवादियों के एकजुट होने के बावजूद वोट और सीट में बढ़ोतरी नहीं हुई।
1962 के आम चुनाव तक आते-आते कांग्रेस की लोकप्रियता कुछ हद तक कम होने लगी थी। इस वजह से कांग्रेस के वोट तीन प्रतिशत कम हो गये और सीटें भी दस कम हो गयी। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के वोटों में भी लगभग 4 प्रतिशत की गिरावट (10.41 से 6.81) आयी और सीटें भी 19 से कम होकर केवल 12 रह गयी। भारतीय जनसंघ के वोट में आधा प्रतिशत (5.97 से 6.44) की बढ़ोतरी हुई लेकिन सीटें 4 से बढ़कर 14 हो गयी। कम्युनिस्ट पार्टी के वोटों में एक प्रतिशत (8.92 से 9.94) की बढ़ोतरी हुई और सीटें 27 से बढ़कर 29 हो गयी। इन तीन आम चुनावों से स्पष्ट है कि कांग्रेस की लोकप्रियता 1962 तक आते-आते कुछ कम हुई लेकिन यह कोई उल्लेखनीय गिरावट नहीं कही जा सकती। सीटों में भी कोई चौंकाने वाली गिरावट नहीं आयी। समाजवादियों की लोकप्रियता वह नहीं रही जो 1952 के चुनाव के समय थी। उनके वोटों में भी और सीटों में भी गिरावट आयी। कम्युनिस्टों के वोटों में 1952 से 1957 में 5 प्रतिशत वृद्धि हुई लेकिन 1962 तक आते-आते बढ़ोतरी धीमी हो गयी हालांकि सीटें इन दस सालों में 16 से बढ़कर 29 हो गयी। इन दस सालों में कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी लेकिन कांग्रेस की तुलना में वह काफ़ी पीछे थी। कांग्रेस के अंदर नेहरू के नेतृत्व को चुनौती देने वाला कोई नहीं था हालांकि अब भी कांग्रेस में दक्षिणपंथी नेताओं की भरमार थी लेकिन वे सरकार और संगठन में कुछ ख़ास दख़ल देने की स्थिति में नहीं थे। इन दस सालों में भारतीय जनसंघ के वोट दुगुने और सीटें चार गुने से ज़्यादा हो गयी थीं। लेकिन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की नज़र में वह कोई ऐसा ख़तरा नहीं बनी थी कि वे उसको गंभीरता से लें। लेकिन वामपंथी, समाजवादी और कांग्रेस जिस बात की अनदेखी कर रहे थे, वह आरएसएस का ज़मीनी स्तर पर बढ़ता फैलाव था। इसे भुला दिया गया कि उसका लक्ष्य और इरादा क्या है। नतीजतन उसे भी एक अन्य राजनीतिक पार्टी की तरह की एक बूर्जुआ पार्टी ही समझा गया।
समाजवाद के प्रति अपने को वचनबद्ध कहने वाले दल और समूह जिन्होंने कांग्रेस इसलिए छोड़ दी थी कि आज़ादी के बाद की कांग्रेस पर दक्षिणपंथियों का वर्चस्व हो गया था। लेकिन ये ही समाजवादी जो कभी समाजवादी पार्टी के नाम से, कभी प्रजा समाजवादी पार्टी के नाम से और कभी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नाम से दल बनाते और तोड़ते रहे, उनमें धीरे-धीरे कांग्रेस को सत्ता से हटाने की ऐसा उन्माद पैदा हो गया कि वे अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए शैतान से भी हाथ मिला सकते थे। राममनोहर लोहिया जिन्होंने 1962 के लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश के फूलपुर में नेहरू के सामने चुनाव लड़ा था, हार गये थे। इस हार का उन पर शायद गहरा सदमा पहुंचा। ठीक उसी समय भारतीय जनसंघ के नेताओं से उनका संवाद काफ़ी बढ़ा और आरएसएस की कई शाखाओं में भी गये। वे जनसंघ के नेताओं के इस मत से सहमत होने लगे थे कि कांग्रेस का मुक़ाबला अकेले अकेले नहीं किया जा सकता इसके लिए कांग्रेसविरोधी दलों को एकजुट होना चाहिए। राममनोहर लोहिया इस विचार से न केवल प्रभावित हुए बल्कि उन्होंने कांग्रेस को हराने के लिए ‘ग़ैरकांग्रेसवाद’ का नारा दिया जिसका मतलब ही था कि किसी भी क़ीमत पर कांग्रेस को सत्ता से हटाओ। 1967 में उन्हें इसकी संभावना नज़र आयी।
1962 के चुनावों के बाद देश एक के बाद एक कई संकटों से दो-चार हुआ। 1962 में चीन के साथ सीमा विवाद हुआ और इस युद्ध में चीन के हाथों भारत की पराजय हुई। इसके लिए नेहरू की नीतियों को दोषी ठहराया गया। चीन युद्ध के दो साल बाद जवाहरलाल नेहरू का देहावसान हो गया और लालबहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने। लालबहादुर शास्त्री नेहरू की तरह वामपंथ की ओर झुकाव नहीं रखते थे और न ही कांग्रेस के दक्षिणपंथियों की तरह दक्षिणपंथी थे। उन्हें ज़्यादा कुछ करने का अवसर भी नहीं मिला। 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध ने उन्हें लोकप्रियता तो बहुत दिला दी लेकिन युद्ध विराम के कुछ दिनों बाद ही जनवरी 1966 में उनका देहांत हो गया। शास्त्रीजी की मृत्यु ने कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट खड़ा कर दिया और उस समय कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेताओं ने जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी का नाम यह सोचकर आगे किया कि इससे एक ओर नेहरू की विरासत के प्रति जनता में जो सम्मान भावना है उसका लाभ उठाया जा सकता है और दूसरा इंदिरा गांधी को जिनकी राजनीति का कोई स्पष्ट खुलासा नहीं हुआ था, उसे अपने मन-माफ़िक़ ढंग से चलाया जा सकता है। इसी दौरान कम्युनिस्ट पार्टी में भी वैचारिक मतभेद बहुत तीखे हो गये और अंतत: 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी भी दो टुकड़ों में बंट गयी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हुए समूह ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नाम से एक नयी पार्टी बना ली।
इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के एक साल बाद ही फ़रवरी 1967 में चौथा आम चुनाव हुआ और इस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर सत्ता हासिल करने में कामयाब रही लेकिन उसको मिलने वाले वोट और सीटों में काफ़ी कमी आ गयी। इस चुनाव में कांग्रेस के वोटों में चार प्रतिशत की गिरावट (44.72 से 40.78) आ गयी और सीटें भी 361 से घटकर 283 ही रह गयीं यानी 78 सीटें कम हो गयीं। इस चुनाव में भारतीय जनसंघ के वोटों में लगभग तीन प्रतिशत बढ़ोतरी (6.44 से 9.31) हुई और सीटें 14 से बढ़कर 35 हो गयीं। कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन की वजह से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वोट (9.94 से 5.11) और सीट (29 से 23) दोनों में कमी आयी। लेकिन नयी बनी ‘भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)’ ने 4.28 प्रतिशत वोट और 19 सीटें जीतीं। इस तरह दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के कुल वोट तो कमोबेश उतने ही थे जितने 1962 में प्राप्त हुए थे लेकिन सीटों में 13 की बढ़ोतरी हो गयी। 1967 में स्वतंत्र पार्टी जो दक्षिणपंथी पार्टी थी उसने 44 सीटों पर विजय हासिल की। इसी तरह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने 23 सीटों और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 13 सीटों पर विजय प्राप्त की। इस दौरान एक उल्लेखनीय विजय द्रविड़ मुनेत्र कड़गम को मिली उसने मद्रास (अब तमिलनाडु) में 25 सीटें हासिल कीं। इस तरह कांग्रेस के नुक़सान का फ़ायदा समाजवादियों, कम्युनिस्टों, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम को मिला। पिछले दस सालों में कांग्रेस के वोटों में 8 प्रतिशत की कमी आ गयी थी।
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