‘कोसल में विचारों की कमी है’ – 3 / जवरीमल्ल पारख


“भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी में शामिल करने के ख़तरे की ओर न केवल किसी ने ध्यान नहीं दिया बल्कि उसका स्वागत किया गया, क्योंकि इन सबका एक ही लक्ष्य था, कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना। समाजवादियों का वैचारिक पतन इस हद तक हो चुका था कि जब प्रधानमंत्री पद के लिए दलित समाज से आये जगजीवनराम का नाम प्रस्तावित किया गया और चौधरी चरणसिंह जैसे नेताओं ने इसका विरोध किया, तब उनकी जगह घोर दक्षिणपंथी नेता मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव लाये जाने पर किसी समाजवादी ने इसका विरोध नहीं किया।”–जवरीमल्ल पारख के आलेख का तीसरा और अंतिम भाग :

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भाग-3

संघ-भाजपा के प्रति नरम रुख़ की शुरुआत और उसके परिणाम

1967 में कांग्रेस केंद्र में तो स्पष्ट बहुमत के साथ आ गयी लेकिन कुछ राज्यों में उसे सत्ता गंवानी पड़ी। केरल में कांग्रेस की जगह सीपीआइ(एम) के नेतृत्व में वामपंथी दलों का गठबंधन सत्ता में आया, तो मद्रास (अब तमिलनाडु) में द्रविड़ मुनेत्र कषगम सत्ता में आयी और बंगाल में भी सीपीआइ(एम) और ‘बंगाल कांग्रेस’ का गठबंधन सत्ता में आया। ‘बंगाल कांग्रेस’ कांग्रेस से निकलकर अलग पार्टी बनाने वालों का दल था। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और बिहार राज्य जिसमें कांग्रेस को मामूली बहुमत मिला था, वहां कुछ समय बाद कांग्रेस से निकलकर अलग-अलग पार्टी बनाने वालों ने भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मिलकर जो सरकारें बनायीं, उन्हें ‘संयुक्त विधायक दल’ कहा गया। यह राजनीति में एक नये प्रयोग की शुरुआत थी, जिसका कोई वैचारिक आधार नहीं था। संविद सरकारों में शामिल होने वाले दलों में वामपंथ से दक्षिणपंथ और धर्मनिरपेक्ष से सांप्रदायिक दल तक सब शामिल थे। उनके बीच एकता का एक ही आधार था, कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना और सत्ता पर क़ाबिज़ होना। केरल, बंगाल और तमिलनाडु से संविद सरकारें इस अर्थ में अलग थीं कि केरल और बंगाल के गठबंधन का एक वैचारिक आधार था और द्रमुक तमिल अस्मिता का प्रतिनिधित्व करने वाला एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष दल था। यह अंतर ज़मीनी स्तर पर भी नज़र आ रहा था। लेकिन उत्तर भारत के राज्यों में बनने वाली ग़ैरकांग्रेसी सरकारों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता था। संविद सरकारों में स्वतंत्र पार्टी और समाजवादी एक साथ थे जिनका राजनीतिक-आर्थिक दृष्टिकोण एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत था। इसी तरह समाजवादी, स्वतंत्र पार्टी और कांग्रेस से निकले समूह अपने को धर्मनिरपेक्ष मानते थे, लेकिन उन्हें भारतीय जनसंघ के सांप्रदायिक दृष्टिकोण से कोई समस्या नहीं थी।

भारतीय जनसंघ को सत्ता में भागीदार बनाने का नतीजा जल्दी ही दिखने लगा था। सातवें दशक में जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे होने लगे। ‘राष्ट्रीय एकता परिषद द्वारा जारी किये गये आंकड़ों के मुताबिक़ सन 1966 में 132, 1967 में 220 और 1968 में 346 सांप्रदायिक घटनाएं हुईं (इनमें बढ़ोतरी का क्रम 69 और 70 में भी जारी रहा’) (रामचंद्र गुहा, भारत : नेहरू के बाद, 2012, पेंग्विन बुक्स, गुड़गांव, पृ. 58)। सबसे ज़्यादा दंगे उत्तर प्रदेश और बिहार में हुए। हालांकि सबसे भयावह दंगा अहमदाबाद और रांची में हुआ था। सातवें दशक में दंगों की घटनाओं में बढ़ोतरी के कारणों पर विचार करते हुए रामचंद्र गुहा ने लिखा, ‘सांप्रदायिक हिंसा में अचानक बढ़ोतरी की एक वजह थी राज्य सरकारों का ढुलमुल रवैया। ख़ासकर संविद सरकारें इन दंगों के प्रति लगभग आंख मूंदे हुए थीं और दंगाइयों के ख़िलाफ़ बल प्रयोग से हिचकती थीं। दूसरी वजह यह थी कि 1965 में लड़ाई के बाद पाकिस्तान विरोधी भावनाएं उफान पर थीं, जिसे आसानी से मुसलमानों के ख़िलाफ़ मोड़ा जा सकता था। देश में एक वर्ग ऐसा बन गया था, जिसने ग़लत तरीक़े से मुसलमानों पर दुश्मनों से सहानुभूति रखने का आरोप लगाना शुरू कर दिया। जनसंघ से प्रेरित हिंदुओं ने मुसलमानों पर ऐसा आरोप लगाना शुरू कर दिया’ (भारत : नेहरू के बाद, पृ.58)।

1967 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में तो आ गयी लेकिन कांग्रेस के अंदर के कुछ नेता भी और बाहर के विपक्षी दलों का मानना था कि अगर समस्त विपक्षी पार्टियां एकजुट हो जायें तो कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल किया जा सकता है। ऐसा सोचने वालों में समाजवाद में यक़ीन करने वाले दल, कांग्रेस के अंदर के दक्षिणपंथी समूह, स्वतंत्र पार्टी जैसे दक्षिणपंथी दल और भारतीय जनसंघ जैसे सांप्रदायिक दल शामिल थे। इंदिरा गांधी के विरुद्ध एकजुट होने के लिए कांग्रेस के कई नेताओं ने कांग्रेस से अलग होकर अपने छोटे-छोटे दल बना लिये। स्पष्ट था कि इन सभी दलों और समूहों की एकता का आधार कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं थी। दक्षिणपंथी और वामपंथी और सांप्रदायिक दलों की अवसरवादी एकता ने राजनीतिक विचारधाराओं को हाशिये पर धकेल दिया। वैचारिक रूप से समाजवादी दलों ने कांग्रेस विरोध को ‘ग़ैरकांग्रेसवाद’ का वैचारिक आधार देकर अपने राजनीतिक अवसरवाद को सैद्धांतिक जामा पहनाने की कोशिश की। इसने समाजवादियों को वैचारिक रूप से सबसे कमज़ोर किया। धर्मनिरपेक्षता अब उनके लिए हाशिये की चीज़ हो गयी और समाजवाद भी ज़बानी जमाख़र्च की चीज़ भर रह गयी। इन दोनों की जगह लोहिया जैसे नेताओं ने वैचारिक स्तर पर राष्ट्रवाद और भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का ऐसा घालमेल पेश किया जो भारतीय जनसंघ की सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की विचारधारा से बहुत अलग नहीं था। यह अवश्य था कि मुस्लिमविरोध का सांप्रदायिक आग्रह उनमें नहीं था लेकिन उसके प्रति वैसा विरोध भाव भी नहीं था जैसा इस ख़तरे को देखते हुए होना चाहिए था।

इस ख़तरे से निपटने के लिए इंदिरा गांधी ने वामपंथ का रास्ता अपनाया। यह न कम्युनिस्टों का रास्ता था और न ही समाजवाद का। लेकिन कुछ ऐसे लोकप्रिय क़दम ज़रूर उठाये गये जो उनकी वामपंथी छवि बनाने में सहायक बने। उन्होंने कुछ बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और उनका गांव-गांव में विस्तार किया। इन राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा किसानों, शिल्पकारों और लघु उद्योगों को बैंकों से ऋण देने की व्यवस्था की गयी। राजा-महाराजाओं को मिलने वाला प्रिवी पर्स ख़त्म किया गया और जब विरोधियों ने ‘इंदिरा हटाओ’ का नारा दिया तब उसका मुक़ाबला करने के लिए ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा दिया गया जो निश्चय ही जनता को ज़्यादा अपील करने वाला था। इंदिरा गांधी ने नेहरू जी की निर्गुट विदेश नीति को जारी रखा। उनके इन क़दमों ने कांग्रेस के अंदर के वामपंथी रुझान वाले युवाओं को आकृष्ट किया और इस तरह इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के अंदर अपनी स्थिति काफ़ी मज़बूत कर ली। राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी जो इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहते थे, उस छवि को इंदिरा गांधी ने अपने कामों से पूरी तरह से मिटा दिया। राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन के अकस्मात देहावसान के कारण ख़ाली हुए पद पर उपराष्ट्रपति वी. वी. गिरि को उम्मीदवार बनाने की बजाय कांग्रेस के संगठन पर क़ाबिज़ दक्षिणपंथी नेताओं ने नीलम संजीव रेड्डी को उम्मीदवार बनाया। वी. वी. गिरि जो किसी समय मज़दूर संगठनों में काम कर चुके थे, निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़े हो गये और जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि उन्हें इंदिरा गांधी का अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त है। उन्होंने कांग्रेसियों को अपनी अंतरात्मा के अनुसार वोट देने की अपील की और बाद में वे खुलकर उनके समर्थन में भी आ गयीं। जबकि दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी से नीलम संजीव रेड्डी का समर्थन करने की अपील की। कांग्रेस अध्यक्ष की इस अपील से स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस के संगठन पर एक ऐसे समूह का क़ब्ज़ा है जिसे दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक संगठनों से मेलजोल रखने में किसी तरह की वैचारिक समस्या नहीं है और यह दरअसल कांग्रेस के अब तक के रास्ते से अलग है। कांग्रेस के इस क़दम ने भी इंदिरा गांधी की प्रगतिशील छवि को मज़बूत करने में मदद की। नतीजतन कांग्रेस के उम्मीदवार की हार हुई और वी. वी. गिरि चुनाव जीत गये।

इंदिरा गांधी के इस क़दम को पार्टी विरोधी क़दम मानकर उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। लेकिन जल्दी ही पार्टी का बहुमत इंदिरा गांधी के साथ था, यह भी स्पष्ट हो गया। कांग्रेस के दो टुकड़े हो गये। कई नामों के बदलाव के साथ दक्षिणपंथी नेताओं वाली कांग्रेस को कांग्रेस (ओ) नाम मिला और इंदिरा गांधी के नेतृत्व को कांग्रेस (इ) के नाम से जाना गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने पक्ष में बदलते हुए हालात का लाभ उठाते हुए आम चुनाव एक साल पहले ही करा लिये। 1971 में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के लिए वह ज़मीन वापस हासिल कर ली जिसे 1967 में कांग्रेस ने गंवा दिया था। 1971 में 1967 के मुक़ाबले इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को मिले वोटों में तीन प्रतिशत की वृद्धि (40.78 से 43.68) और 69 सीटों की बढ़ोतरी (283 से 352) हुई। कांग्रेस (ओ) मात्र 16 सीटें ही जीत पायी और भारतीय जनसंघ के वोटों में भी दो प्रतिशत की कमी (9.31 से 7.35) आयी और 13 सीटें कम ( 35 से 22) हो गयीं। इस चुनाव में स्वतंत्र पार्टी को भारी नुक़सान झेलना पड़ा। उसकी 44 सीटें कम होकर मात्र 8 रह गयीं और वोट प्रतिशत भी 8.67 से कम होकर मात्र 3.07 रह गया। कम्युनिस्ट पार्टियों को इस चुनाव में बहुत अधिक लाभ या नुक़सान नहीं हुआ। सीपीआइ (एम) के वोट और सीटों में बढ़ोतरी हुई जबकि सीपीआइ की कमोबेश वही स्थिति रही। समाजवादियों को काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को कुल 31 सीटों का नुक़सान हुआ और 36 की जगह केवल पांच सीटों पर ही उन्हें विजय हासिल हुई। इस तरह इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की खोयी हुई प्रतिष्ठा और लोकप्रियता वापस हासिल कर ली।

इस चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस को हराने के लिए ग़ैरकांग्रेसवाद का नारा कारगर नहीं साबित हुआ। जनता ने दक्षिणपंथी, समाजवादी और सांप्रदायिक दलों को नकार दिया था। यह बहुत अच्छा अवसर था जब कांग्रेस जनपक्षीय प्रगतिशीलता के रास्ते पर और अधिक मज़बूती के साथ आगे बढ़ सकती थी। लेकिन लगभग उसी समय पाकिस्तान में भी चुनाव हुए जिसमें पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में हुए चुनाव में दो अलग-अलग पार्टियां बहुमत में आयीं और इसने पाकिस्तान में राजनीतिक संकट पैदा कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान में हुए आंदोलन को दबाने के लिए सैनिक शासक याह्या ख़ान ने सेना का इस्तेमाल किया और उस दमन के कारण भारत में लगभग एक करोड़ शरणार्थी आये। यहां बहुत विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ़ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि पाकिस्तान के साथ भारत का युद्ध हुआ जिसमें पाकिस्तान की करारी हार हुई और पूर्वी पाकिस्तान एक स्वतंत्र देश, बांग्लादेश बना।

इस सारे घटनाक्रम ने इंदिरा गांधी की लोकप्रियता तो बढ़ायी लेकिन शरणार्थी समस्या और युद्ध ने देश को आर्थिक संकट में भी धकेल दिया। महंगाई और बेरोज़गारी के विरुद्ध जगह-जगह आंदोलन हुए। विशेष रूप से गुजरात से लेकर बिहार तक हुए आंदोलनों का नेतृत्व भारतीय जनसंघ सहित उन राजनीतिक पार्टियों ने किया जो 1967 के बाद से ही ‘ग़ैरकांग्रेसवाद’ के नाम पर कांग्रेस विरोधी आंदोलनों में साथ-साथ सक्रिय थीं। 1974 के आसपास होने वाले इन आंदोलनों का नेतृत्व करने के लिए भूतपूर्व समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण, जो लंबे समय से विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन में सक्रिय थे और जिन्होंने राजनीति से अपने को दूर कर लिया था, एक बार फिर राजनीति में सक्रिय हो गये। अपनी अराजनीतिक छवि का उन्हें लाभ भी मिला। लेकिन इसका सबसे अधिक लाभ भारतीय जनसंघ ने उठाया जिसने आरएसएस और उनसे जुड़े छात्र और युवा संगठनों को इसमें पूरी ताक़त से झोंक दिया। अपनी एक आंदोलनकारी और कुछ हद तक धर्मनिरपेक्ष छवि का मुखौटा लगाकर जनता के बीच एक सम्मानित जगह हासिल करने का यह उनके लिए बहुत बड़ा अवसर था। आरएसएस के सरसंघचालक गोलवलकर के सामने कांग्रेस में शामिल होने का जो प्रस्ताव सरदार पटेल ने रखा था, उस पर आपातकाल के बाद 1977 में अमल हुआ जब जनता पार्टी के रूप में एक नयी पार्टी का गठन हुआ। यह पार्टी भी कांग्रेस की तरह पार्टी कम एक मंच ज़्यादा थी जिसमें भांति-भांति के रंग-रूप के राजनीतिक समूह शामिल थे। समाजवादी (जिन्होंने समाजवाद से बहुत पहले ही नाता तोड़ लिया था, केवल लेबल भर रह गया था), संगठन कांग्रेसी (ये विचारों में दक्षिणपंथी थे और सामाजिक रूप से प्रतिगामी थे), स्वतंत्र पार्टी (पूरी तरह दक्षिणपंथी और पूंजीवाद समर्थक), लोकदल (मध्यवित्तीय और पिछड़ी जाति के किसानों का प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले, यह भी कांग्रेस से निकला हुआ समूह था)—ये सभी अपने धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते थे। लेकिन धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता उनके लिए जीवन-मरण का सवाल नहीं था। इसलिए भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी में शामिल करने के ख़तरे की ओर न केवल किसी ने ध्यान नहीं दिया बल्कि उसका स्वागत किया गया, क्योंकि इन सबका एक ही लक्ष्य था, कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना। समाजवादियों का वैचारिक पतन इस हद तक हो चुका था कि जब प्रधानमंत्री पद के लिए दलित समाज से आये जगजीवनराम का नाम प्रस्तावित किया गया और चौधरी चरणसिंह जैसे नेताओं ने इसका विरोध किया, तब उनकी जगह घोर दक्षिणपंथी नेता मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव लाये जाने पर किसी समाजवादी ने इसका विरोध नहीं किया। यह और बात है कि जनता पार्टी का यह प्रयोग बहुत लंबे समय तक नहीं चला और जल्दी ही वह टूट-फूटकर कई टुकड़ों में बंट गयी।

जनता पार्टी के टूटने का एक प्रमुख कारण भारतीय जनसंघ से आये सदस्यों की अब भी आरएसएस से संबद्धता का बना रहना था। आरएसएस से संबद्धता का विरोध मधु लिमये जैसे समाजवादी नेताओं ने किया जो लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं के भारतीय जनसंघ के साथ गठजोड़ के विचार से 1967 में भी सहमत नहीं थे। इस घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया था कि न संघ बदला था और न संघ के राजनीतिक कार्यकर्ता बदले थे। इसलिए वे जल्दी ही एक नये नाम ‘भारतीय जनता पार्टी’ के साथ राजनीतिक दल के रूप में पुन: संगठित हो गये। भारतीय जनसंघ हो या भारतीय जनता पार्टी, ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखौटे भर थे। लगभग सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियां, सत्ता-स्वार्थ के चलते, इस सच्चाई को भुलाती रही हैं। भाजपा के समर्थन से या उसके साथ-साथ सत्ता-सुख भोगने वाले लगभग सभी समूह किसी न किसी समय कांग्रेस के हिस्से थे और आमतौर पर अपनी जाति के वर्चस्व को स्थापित करने या बनाये रखने के लिए वे कांग्रेस से अलग हुए। विडंबना यह है कि धर्मनिरपेक्षता पर इनमें से किसी की भी मज़बूत आस्था नहीं रही और समाजवाद से तो नाता कभी का टूट चुका था। संविधान की प्रस्तावना के ये दोनों शब्द ही नहीं, पूरी प्रस्तावना अपना अर्थ खोती जा रहे थी।

जवाहरलाल नेहरू के बाद के दौर में सांप्रदायिकता के प्रति कांग्रेस और अन्य सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में जिस वैचारिक सजगता और सक्रियता की आवश्यकता थी, वह धीरे-धीरे लुप्त होने लगी। 1975 में जब एक न्यायालय ने इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था, तब उनके द्वारा आपातकाल लागू करने से राजनीति का केंद्रीय मुद्दा तानाशाही बनाम लोकतंत्र बन गया था और इस पर सभी ग़ैरकांग्रेसी पार्टियां एक मत थी। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के लिए भी लोकतंत्र की रक्षा सबसे बड़ा मुद्दा बन गया था और इसके रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध कांग्रेस नज़र आती थी, जो कि उन ऐतिहासिक क्षणों में एक ज़रूरी फ़ैसला था। कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए जो गठजोड़ समय-समय पर बनते-बिगड़ते गये, उसने कांग्रेस को तो कमज़ोर किया, लेकिन उसका सबसे ज़्यादा लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिला, किसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी को नहीं।

1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गयी थी। लेकिन यह दूसरा दौर काफ़ी हलचल भरा रहा। एक ओर, पंजाब में खालिस्तान के आंदोलन ने, तो दूसरी ओर, कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी गतिविधियों ने जनपक्षीय मुद्दों की बजाय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और उग्र राष्ट्रवाद की ओर लोगों को धकेलने के लिए प्रेरित किया। इसका राजनीति पर भी नकारात्मक असर पड़ा। स्थितियां और बदतर हो गयीं, जब 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की खालिस्तान समर्थकों द्वारा हत्या कर दी गयी। इंदिरा गांधी की हत्या का बदला सिखविरोधी दंगों द्वारा लिया गया। इसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को बहुत बड़ी विजय प्राप्त हुई लेकिन इस विजय के पीछे हिंदू प्रतिक्रिया का बहुत बड़ा हाथ था। इस तरह वह कांग्रेस जिसका धर्मनिरपेक्षता का रिकार्ड बहुत बुरा नहीं रहा था, वह स्वयं सांप्रदायिकता के जाल में फंसती गयी। भारतीय जनता पार्टी ने 1984 में कांग्रेस की भारी जीत से यही सबक़ लिया कि हिंदुओं को सांप्रदायिक मसले पर भड़काया जा सकता है और यहीं से बाबरी मस्जिद बनाम रामजन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत हुई।

कांग्रेस, संघ-भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति का मुक़ाबला करने की बजाय स्वयं उसके जाल में उलझती चली गयी। उग्र हिंदुत्व का जवाब नरम हिंदुत्व से देने लगी। कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाये, बाबरी मस्जिद को ढह जाने दिया और इस तरह हिंदू सांप्रदायिकता के आगे मज़बूती के साथ खड़े होने की बजाय एक अवसरवादी रवैया अपनाया। इससे बहुत भिन्न रवैया अन्य बूर्जुआ पार्टियों का भी नहीं था। यह ज़रूर है कि कांग्रेस ने कभी भी भाजपा के साथ किसी तरह का समझौता नहीं किया। ऐसा कोई अवसरवादी समझौता कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी नहीं किया। लेकिन एक-दो अपवादों को छोड़कर अधिकतर बूर्जुआ पार्टियों ने भाजपा के साथ गठबंधन भी किये और सरकारें भी बनायीं।

लगभग चार दशकों से संघ-भाजपा धर्म के नाम पर राजनीति ही नहीं कर रही है बल्कि जनता में फूट डालने का काम भी कर रही है। बाबरी मस्जिद का विध्वंस, समय-समय पर होने वाले एकतरफ़ा दंगे और मुस्लिम आबादी के बारे में जानबूझकर फैलाये जाने वाले झूठों ने देश के पूरे माहौल को विषाक्त बना दिया है। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुले आम पिछले बीस से अधिक सालों (इसमें गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल भी शामिल है) से मुसलमानों के विरुद्ध सार्वजनिक रूप से ज़हर उगलते आ रहे हैं। सांप्रदायिक उन्माद ने ही भाजपा को पहले गुजरात में और पिछले दो संसदीय चुनावों में जीत दिलवायी है। यहां यह कहना ज़रूरी है कि यह समझना कि केवल चुनावों के द्वारा भाजपा को पराजित किया जा सकता है, केवल भ्रम है जबकि लोकतंत्र के सभी स्तंभों और संस्थाओं ने मौजूदा सत्ता के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। हालात इस हद तक बिगड़ चुके हैं कि संविधान के प्रति वचनबद्ध किसी भी संस्थान की हिम्मत नहीं है कि सत्तासीन सांप्रदायिक तत्वों को रोक सके या उनके विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई कर सके।

इसकी एक बड़ी वजह यह है कि राजनीतिक पार्टियों का, विशेष रूप से बूर्जुआ पार्टियों का वैचारिक पतन। इन पार्टियों के अधिकतर नेताओं के लिए राजनीति में सक्रियता और चुनाव लड़ना आजीविका का ऐसा शानदार साधन हो गया है जिसके द्वारा वे धन और सत्ता, दोनों का सुख हासिल कर सकते हैं। इसके लिए जो भी तिकड़में और समझौते करने ज़रूरी होते हैं, उन्हें करने में न कोई नैतिक और न ही वैचारिक बाधा उनके सामने होती है। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि राजनीतिक पार्टी नामक दुकान के बोर्ड पर क्या लिखा है। वे बिना हिचक दुकान भी बदल लेते हैं और उस पर लगा बोर्ड भी, क्योंकि उन्हें मालूम है कि उन्हें  वोट धर्म और जाति के नाम पर मिलेंगे न कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर।

भारतीय राजनीति में मध्यवित्तीय, पिछड़ी और दलित जातियों के उत्थान ने राजनीति में किसी बुनियादी बदलाव की ज़मीन तैयार नहीं की। इन वर्गों के नेतृत्व की केवल यह आकांक्षा थी कि सत्ता जो अब तक उच्च वर्णों और वर्गों के हाथ में रही है, उसमें उनकी भी हिस्सेदारी हो। उनकी यह इच्छा काफ़ी हद तक पूरी भी हुई। लेकिन वे सत्ता के वर्गीय चरित्र में कोई बदलाव नहीं ला सके या यह कहना चाहिए कि उनमें ऐसी कोई इच्छा भी नहीं थी और न ही ऐसा करना उनके राजनीतिक एजेंडे में शामिल था। जाति आधारित इस राजनीति की सीमा यह भी थी कि प्रत्येक जाति, चाहे संख्या की दृष्टि से कितनी भी बड़ी क्यों न हो, अकेले अपने बलबूते पर सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंच सकती थी। इसके लिए दूसरी जातियों के साथ गठजोड़ करना ज़रूरी था और वैसा किया भी गया। इस ज़रूरत ने हर जाति में ऐसे नेताओं की खेप पैदा कर दी जो अपनी जाति के वोट दिलवाने का काम करने में माहिर हों। यह राजनीति में केरियर बनाने का पहला चरण होता है और इसे सफलतापूर्वक करने पर और आगे बढ़ने की संभावना मज़बूत होती है। इसका दिलचस्प पहलू यह भी है कि दलबदल कर किसी भी पार्टी में आने-जाने से पहचान पर कोई असर नहीं पड़ता और विचारधारा को लेकर न तो कोई सवाल पूछता है और न उंगली उठाता है।

आज स्थिति यह है कि भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर शेष सभी पार्टियां विचारधारा रहित हो गयी हैं। यही कारण है कि 1990 के बाद से आर्थिक उदारवाद को सभी बूर्जुआ पार्टियों ने जिस सहजता से स्वीकार कर लिया, वह बिल्कुल नहीं चौंकाता। ऐसा लगता है जैसे इस पर एक व्यापक राष्ट्रीय सहमति बन गयी है। इस आम सहमति का ही नतीजा है कि अस्सी करोड़ लोग पांच किलो अनाज पर खुश हैं और महज 15-20 उद्योगपति देश की पूरी संपदा पर क़ब्ज़ा जमाते जा रहे हैं और यह किसी भी तरह के आंदोलन के लिए मुद्दा नहीं बन रहा है। कभी-कभार किसान या मज़दूर आंदोलन करने को मजबूर भी होते हैं तो इन आंदोलनों को कुचलने के लिए उठाये गये क़दमों से कोई विचलित होता नज़र नहीं आता। गज़ा में इसराइल द्वारा पिछले सात महीने से किये जा रहे नरसंहार ने अमरीका और यूरोप में लगभग वैसे ही युद्धविरोधी आंदोलन पैदा कर दिये हैं जैसे वियतनाम के समय पैदा हुए थे। लेकिन भारत में कमोबेश सभी विश्वविद्यालयों में सन्नाटा छाया हुआ है। कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदुत्व की राजनीति के प्रभाव में आयी हुई जनता इस बात से ख़ुश हो कि गज़ा में मरने वाले मुसलमान हैं।

सत्तर-अस्सी के दशक में यह आम धारणा थी कि जाति आधारित राजनीति सांप्रदायिकता के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल की जा सकती है और शायद कुछ समय के लिए की भी गयी। लेकिन बहुत लंबे समय तक यह प्रयोग कामयाब नहीं हुआ। इसके विपरीत देखा यह गया है कि जाति आधारित राजनीति ने सांप्रदायिकता के लिए ज़मीन तैयार करने का काम ही किया है। जाति आधारित राजनीति जिस जाति या जातियों को अपने पीछे लामबंद करती है, उनमें अपनी जाति आधारित पहचान को लेकर न केवल जागरूकता का होना ज़रूरी है, दूसरों से अपने को अलगाने की भावना का होना भी ज़रूरी है। दरअसल जातिवाद केवल जाति भावना को ही मज़बूत नहीं करता है, वह श्रेणीबद्धता की भावना को भी मज़बूत करता है, क्योंकि जातिवाद में श्रेणीबद्धता अंतर्निहित है। चूंकि जातिवाद हिंदू समाज की सामाजिक संरचना का हिस्सा है, इसलिए जिस हिंदू में जाति भावना मज़बूत होती है, उसमें धार्मिक चेतना भी मज़बूत होती जाती है। एक स्तर पर वह अपनी जाति पहचान को लेकर गर्व महसूस करता है तो दूसरी ओर अपनी धार्मिक पहचान को लेकर भी उनमें आसानी से गर्व भावना पैदा की जा सकती है।

हमारे संविधान में धर्म, जाति, जेंडर के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को न केवल अस्वीकार किया गया है बल्कि ऐसा भेदभाव करने को अपराध घोषित किया गया है। कोई भी आरएसएस से थोड़ा भी परिचित है, वह यह अच्छी तरह से जानता है कि उसने कभी भी संविधान की प्रस्तावना को स्वीकार नहीं किया। आज वह वोट की राजनीति के चलते आंबेडकर और आरक्षण के बारे में कुछ भी दावा क्यों न करे, सच्चाई यह है कि भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के परंपरागत समर्थक वे ही समुदाय रहे हैं जिन पर ब्राह्मणवाद का गहरा प्रभाव रहा है और जातिवाद में आकंठ डूबे रहे हैं। संघ और उसके सभी संगठनों की छवि मुसलमानविरोधी होने के साथ-साथ दलितविरोधी होने की भी रही है। उन्होंने दलितों और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण को कभी स्वीकार नहीं किया। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की उन सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा की जिसके अनुसार पिछड़ी जातियों के लिए भी शिक्षा और रोज़गार में 27 प्रतिशत आरक्षण की संस्तुति की गयी थी, तो उसके प्रभाव को ख़त्म करने के लिए भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर के पक्ष में रथ-यात्रा निकालने का निर्णय लिया। यही नहीं, उस समय आरक्षण के विरोध में जो आंदोलन हुआ, उसके पीछे आरएसएस-भाजपा की फ़ौज ही सड़क पर उतर आयी थी।

जिस हिंदू राष्ट्र की बात आरएसएस करता है, वह दरअसल सवर्ण वर्चस्व वाला हिंदू राष्ट्र होगा जिसमें मुसलमान ही दोयम दर्जे के नागरिक नहीं होंगे, दलितों को भी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार अपनी वास्तविक जगह बता दी जायेगी। हो सकता है, आज से दस साल पहले तक राजनीतिक दलों को ये बातें बहुत विश्वसनीय न लगती रही हों क्योंकि तब तक भाजपा को संसद में वह बहुमत नहीं मिला था जो उसके प्रकट और गुप्त एजेंडे को लागू करने के लिए ज़रूरी था। लेकिन 2014 में प्राप्त बहुमत ने उन्हें इतनी ताक़त अवश्य दे दी थी कि मुसलमानों और दलितों की कई जगह भीड़ द्वारा हत्याएं की गयीं। आरक्षण काग़ज़ों पर तो बना रहा, लेकिन व्यवहार में वह कमज़ोर होता गया। जब नरेंद्र मोदी, अमित शाह और मोहन भागवत यह दावा करते हैं कि वे कभी आरक्षण ख़त्म नहीं होने देंगे, तब लोग यह सवाल नहीं पूछते कि आज जिस तरह सरकारी नौकरियां ख़त्म की जा रही हैं, तब आरक्षण बना रहने पर भी दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के लिए क्या रोज़गार उपलब्ध होंगे? निजी क्षेत्र में तो आज भी आरक्षण लागू नहीं है और आगे लागू होगा, इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। 2019 में जब भाजपा को और बड़ा बहुमत मिला तो वे धारा 370 हटाने, सीएए जैसा धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला नागरिकता क़ानून लागू करने और सवर्णों के लिए आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण लागू करने में कामयाब रहे जो अंतत: दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के आरक्षण को कमज़ोर करने का कारण बना।

2024 के चुनाव का विपक्षी दलों के लिए एक बड़ा मुद्दा संविधान की रक्षा करना है। यह आमतौर पर माना जा रहा है कि अगर भाजपा भारी बहुमत से जीतकर आती है तो वह संविधान को भले ही न बदले लेकिन उसमें ऐसे कई संशोधन कर सकती है जो यदि एक ओर नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता पर कुठाराघात करने वाले होंगे, तो दूसरी ओर, उनमें ऐसी धाराएं जोड़ी जा सकती हैं जिसके कारण दलितों को मिलने वाले अधिकारों में कटौती होगी और मुसलमानों और ईसाइयों को संविधान में दिये गये बराबरी के हक़ को काफ़ी हद तक कमज़ोर कर दिया जायेगा। आज भी मुसलमानों को व्यवहार में लगभग दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया है लेकिन 2024 के चुनाव के बाद क़ानून की नज़रों में भी वे दोयम दर्जे के नागरिक बना दिये जायेंगे जिसकी शुरुआत नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के द्वारा हो चुकी है।

ऐसा इसलिए होगा क्योंकि आज़ादी हासिल होने के बाद संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकार और कर्त्तव्य नागरिक के रूप में हमारे समस्त क्रियाकलापों के आधार होने चाहिए थे, जो हमारे ज्ञान और शिक्षा की प्रेरक शक्ति होने चाहिए थे, उन्हें हमने और हमारा प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियों ने हाशिये पर डाल दिया है।

(समाप्त)

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