अतीत के दाग़ : बहराइच के बहाने 1989 के भागलपुर दंगे की आँखों-देखी / श्रीनिवास


‘इस तरह के दंगों या सांप्रदायिक हिंसा के भड़कने के बाद अक्सर पूछा जाता है कि हिंसा की शुरुआत किसने की? पहला पत्थर किसने चलाया? यह सवाल नहीं किया जाता कि गाँव और शहर को इतना विषाक्त किसने बनाया? धर्मोन्माद कौन लोग भड़का रहे थे? चारों ओर बारूद और पेट्रोल किन लोगों ने छिड़क दिया था कि माचिस की एक तीली से पूरा शहर जल गया?’ –वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास ने भागलपुर दंगों को याद करते हुए हमें समय और स्थान में अपने आसपास पड़ने वाले सभी दंगों को समझने की कुंजी सौंपी है। श्रीनिवास जी लंबे समय तक ‘प्रभात ख़बर’ के शीर्ष पदों पर रहे। अवकाश-प्राप्ति के बाद भी वे जनसरोकार के मुद्दों पर लिखते रहते हैं। युवावस्था में वे छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के सक्रिय सदस्य रहे और जे पी आंदोलन के दौरान जेल में भी रहे।

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वर्ष 1989 में 24 अक्टूबर को ही भड़का था वह दंगा, जिसमें एक हज़ार से भी अधिक लोग धर्मांधता की भेंट चढ़ गये थे; और शर्मनाक यह कि बहुतेरे लाशों की पहचान के आधार पर दुखी और खुश हो रहे थे!

अतीत के कड़वे-त्रासद प्रसंगों को क्यों और कैसे याद करें, यह दुविधा हमेशा होती है। कुछ लोग इसे गड़े मुर्दे उखाड़ना भी मानते हैं। लेकिन कोई देश और समाज उस नृशंसता को कैसे भूल सकता है जिसमें मरने वाले अपने थे और मारने वाले भी। मेरी समझ से यदि हम चाहते हैं कि देश/समाज पुनः उस उन्माद में नहीं बहे और फँसे तो हमें अतीत में लौट कर उन कारणों की तलाश, और उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए। हाँ, इसका मक़सद ग़लतियों से सीख लेना होना चाहिए, अतीत में किसी की कथित ज़्यादतियों का हिसाब चुकता करना नहीं। वैसे कोई भी समाज अतीत के अच्छे-बुरे प्रसंगों को याद करता ही है। हमारे सारे त्योहार तो अतीत की स्मृति पर ही आधारित हैं। और स्वयंभू हिंदू हितैषियो की तो राजनीति का आधार ही यही है।

इस दंगे पर बहुत कुछ लिखा गया है। नेट पर भी बहुत सामग्री उपलब्ध है। अब फिर से वह सारा इतिहास दुहराना बेमानी लगता है। फिर भी चूँकि काफ़ी लंबा अरसा बीत चुका है, उसके बाद एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है; दूसरे, उन दंगों से जुड़े अनेक सच से आम आदमी शायद अनभिज्ञ है, इसलिए कुछ बातों को याद करना ज़रूरी लग रहा है। सबसे अधिक कन्फ्यूजन तो हताहतों और उनमें दोनों समुदायों के मृतकों की संख्या को लेकर है। वैसे सरकारी आँकड़ों के अनुसार भागलपुर शहर और भागलपुर ज़िले के 18 प्रखंडों के 194 गाँवों के ग्यारह सौ से ज़्यादा लोग मारे गये थे। तब बाँका अलग ज़िला नहीं बना था।

दंगों के कुछ दिन बाद मैंने‌ इस पर कई किश्तों में काफ़ी कुछ लिखा था, इसलिए अभी उस डिटेल में नहीं जाऊँगा। सब कुछ ठीक ठीक याद भी नहीं; फिर भी उस दौरान हुए कुछ ख़ास अनुभव साझा करूँगा। इसी बहाने एक बार फिर उस दौर और अनुभव को जी लेना चाहता हूँ।

 

राँची से भागलपुर तक के सफ़र में ही दंगे के असर का एहसास हो गया था

तब मैं प्रभात खबर (राँची) में था। 1986 में जुड़ा था। दो-तीन साल बाद अख़बार का निज़ाम बदल गया, नये मालिकान आये और हरिवंश जी नये संपादक। तब झारखंड बिहार का हिस्सा था। तभी भागलपुर में दंगा भड़क गया। मैंने हरिवंश जी से कहा कि इतना बड़ा दंगा हुआ है, पटना के अख़बार उसकी ख़बरों से भरे रहते हैं, अपना अख़बार बहुत पीछे है। एक दिन दफ्तर पहुँचते ही उन्होंने कहा- आप भागलपुर जा सकते हैं? उनको मालूम था कि मैं मूलतः भागलपुर का हूँ। इनकार करने का कोई कारण नहीं था। सहज इच्छा थी। इसी बहाने घर हो आऊँगा। हालाँकि रिपोर्टिंग का कोई अनुभव नहीं था। पूछा- कब जाना होगा? वे बोले- आज जा सकते हैं? 16 या 17 नवंबर की तारीख़ थी। भाग कर घर आया। उस समय हम काँके ब्लॉक कैंपस में रहते थे, दफ़्तर से 9 किलोमीटर। वहाँ से भागते हुए बस स्टैंड गया। भागलपुर के लिए सीधी ट्रेन नहीं थी। बस भी भागलपुर तक नहीं जा रही थी। बस से सुबह देवघर पहुँचा। वहाँ से भी भागलपुर की बस नहीं थी। वहाँ के हालात का आभास होने लगा था। मिनी बस से हंसडीहा पहुँचा। जल्द ही महसूस किया कि सड़क पर कोई मुस्लिम यात्री नहीं है। वहाँ से किसी छोटे वाहन‌ से बौंसी। मंदारहिल-भागलपुर ट्रेन चल रही थी। ट्रेन खचाखच भरी हुई थी, पर मुस्लिम एक भी नहीं; कोई पहचान छिपाकर हो तो हो। बातचीत का विषय दंगा- कितना सच, कितना झूठ, कुछ अंदाज़ा नहीं। अचानक शोर हुआ- पुरैनी आ रहा है, खिड़की-दरवाज़े बंद होने लगे। पुरैनी एक मुसलिम बहुल क़स्बा है, मेरे गाँव फुलवरिया के क़रीब। लोगों को आशंका थी कि मुस्लिम भीड़ हमला कर सकती है! ट्रेन रुकी। स्टेशन पर सन्नाटा पसरा था। न किसी को उतरना था, न किसी को चढ़ना। ट्रेन चल पड़ी। खिड़की-दरवाज़े खोल दिये गये। क़रीब तीन बजे भागलपुर। अपना ही शहर था, पर बदला हुआ-सा। फ़िजाँ में सनसनी और तनाव साफ़ महसूस कर रहा था। लोग जल्दबाज़ी में भी दिख रहे थे। रात का कर्फ्यू जारी था। शायद उसी दिन तक। तब बाबूजी (अगम प्रसाद, क़ानूनी पिता, जो अब नहीं हैं) भागलपुर में ही पोस्टेड थे। पैदल ही उनके सरकारी आवास गया। कुछ देर बाद अपने अग्रज के आवास (भीखनपुर) पर। कहा- मोटर साइकिल चाहिए। आने का मक़सद भी बता दिया। बोले- नहीं, तुम दंगे वाले मुहल्लों में जाओगे। मैंने कहा- जाना तो होगा ही, बाइक से नहीं, तो रिक्शा से या पैदल। फिर मान गये, इस हिदायत के साथ कि अँधेरा होने तक लौट आना है। मैं बाइक लेकर ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ पहुँचा, जो शांतिकामी समाजकर्मियों का केंद्र बना हुआ था। केदार चौरसिया और जयप्रकाश जय (दोनों का निधन हो चुका है), उदय जी और विजय कुमार सहित अनेक परिचित, संघर्ष वाहिनी के साथी मिले। वहाँ अगले दिन का प्रोग्राम बन रहा था- किसे किस एरिया में जाना है। शहर के हालात, दंगे की घटनाओं और हताहतों का लगभग पूरा ब्योरा भी मिल गया।

हर दंगे की तरह, तब भागलपुर में भी तरह-तरह की अफवाहें फैली या फैलायी गयी थीं। दंगों को भीषणतम बनाने में उनका भी/ही योगदान था। मेरी याद में, विभाजन के समय हुए दंगों के अलावा, पहली बार सांप्रदायिक दंगे की आग गाँवों तक फैल गयी थी। सच और झूठ इतनी बातें, कुछ जानबूझकर फैलायी गयीं कि भागलपुर के लोगों को भी क्या कैसे हुआ, कितने लोग मरे, कितने हिंदू, कितने मुसलमान, इनकी सही जानकारी नहीं थी। शायद आज भी नहीं होगी। सभी अफवाहों को अपने हिसाब से सही या ग़लत मान रहे थे। भागलपुर के हिंदुओं को तो यही याद है (अफवाहों के आधार पर ही) कि कम से कम चार-पाँच सौ हिंदू मारे गये, कोई इससे अधिक भी बतायेगा। पर सच यह है कि 20 से अधिक हिंदू नहीं मरे थे। मैं कुछ बढ़ा कर ही बता रहा हूँ। इस तरह, वह लगभग एकतरफ़ा दंगा था, जिसमें गाँवों पर सैकड़ों-हज़ारों की हथियारबंद भीड़ ने हमला किया, मारा-काटा। साथ ही आगजनी और लूट भी हुई। हिंसा की बड़ी घटनाएँ तो शुरू के 4-5 दिन में ही हो चुकी थीं, उसके बाद छिटपुट हिंसा- किसी अकेले को घेर कर मार देना- डेढ़ दो महीने चलती रही।

मेरे पत्रकारिता जीवन की वह एकमात्र रिपोर्टिंग थी। कुछ रोमांचक अनुभव हुए। दो जगह तो ऐसा लगा कि ज़रा-सी चूक होती तो शायद जान जा सकती थी, ‘अपने’ लोगों के हाथों ही! फिलहाल उन्हीं अनुभवों पर केंद्रित रहूँगा।

भागलपुर के सभी राजनीतिक दलों, संगठनों- ख़ास कर हिंदू और मुस्लिम- से मैंने मिलकर या फोन से पूछा था कि उनकी जानकारी में कितनी मौतें हुई हैं, कहाँ छोटी बड़ी घटना हुई है, उसका डिटेल चाहिए। भाजपा और संघ के लोगों ने हिंदू मृतकों की संख्या तो बहुत बड़ी बतायी, लेकिन कोई डिटेल नहीं दिया। कहा- अभी आँकड़ा तैयार नहीं है। बन गया तो दे देंगे। पर दिया नहीं अंत तक। दूसरी ओर मुस्लिम संस्थाओं-संगठनों के पास शहर और पूरे ज़िले का पूरा ब्योरा रजिस्टर में दर्ज था। कब कहाँ क्या घटना हुई, कितने मरे, कितने घायल हुए, कितनी संपत्ति की लूट‌‌ हुई। बाद में पता चला कि वह जानकारी लगभग सही थी।

भागलपुर का टीएनबी कॉलेज काफी प्रतिष्ठित और पुराना कॉलेज है। वह जिस इलाक़े में है, उसके आसपास घनी मुस्लिम आबादी है। जिनको हॉस्टल नहीं मिलता है, ऐसे बहुत सारे विद्यार्थी (हिंदू) प्राइवेट लॉज में रहते हैं, बहुतेरे मुसलमानों के घरों में। ऐसा ही मुहल्ला है तातारपुर, जहाँ मुस्लिम हे स्कूल के पास 24 अक्टूबर को हिंसा की शुरुआत हुई थी। जब हिंसा भड़की, तो एक अफवाह यह फैली कि मुसलिम लॉज में रहने वाले सैकड़ों लड़कों को मार दिया गया। हॉस्टल में घुस कर इतनी लड़कियों के साथ रेप हुआ, उनके स्तन काटे गये… इससे उत्तेजना फैली, और पहली बार दंगा गाँवों में फैल गया। जम कर ‘बदला’ लिया गया। बाद में पता चला कि जो हिंदू लड़के उन मोहल्ले में रहते थे, लॉज के मालिक ने ही उनको तत्काल निकल जाने कहा था। उस उत्तेजक माहौल में मुस्लिम गुंडे भी ’शिकार’ खोज ही रहे होंगे। मानवता के लिए या लॉज मालिकों को यह भी लगा हो शायद कि हमारे घर में किसी की हत्या हो गई, तो बदनामी के अलावा भी मुश्किल में पड़ सकते हैं। जिन्हें जिधर मौक़ा मिला, निकल गये। कुछ स्टेशन गये, जो ट्रेन मिली, उसी पर चढ़ गये। कुछ अपने क़रीब के, गंगा पार के अपने सहपाठियों के गाँव चले गये। जब सारा कुछ शांत हुआ, तो पता चला कि दो-तीन से ज़्यादा विद्यार्थी मिसिंग नहीं थे। जब तक बच्चे घर नहीं पहुँचे थे, माँ-बाप को भी आशंका थी, लेकिन धीरे धीरे सभी घर पहुँच गये। लेकिन उन अफवाहों के असर से पूरा ज़िला जल गया।

 

जब हम पर ‘जासूस’ होने का शक किया गया

दो-तीन अनुभव ख़ास हैं। मेरे गाँव के पश्चिम चार-पाँच किमी पर एक गाँव है तमौनी, जो मेरी एक बुआ की ससुराल है। वहाँ 11 या 12 मुसलमानों की हत्या हुई थी। वह घटना बहुत चर्चित हुई थी। चुनाव प्रचार के दौरान बाद में वीपी सिंह भी वहाँ गये थे

हालाँकि चंदेरी (सबौर) की घटना अधिक चर्चित हुई, जहाँ 80 मुसलमान तब मार डाले गये थे जब सेना ने उनको सुरक्षित निकाल कर स्थानीय पुलिस को संरक्षण में सौंप दिया था और पुलिस ने उन्हें हत्यारों के हवाले कर दिया!
मुझे अपने गाँव से तमौनी का रास्ता मालूम था, लेकिन भागलपुर से दूसरा रूट था, तो बबलू (भतीजा) को साथ ले लिया। नौगछिया के विजय भी थे। रास्ता भटक गये। किसी गाँव में रुके। तब अफवाहों के कारण ऐसी दहशत थी कि लोगों का कहीं आना जाना बहुत कम होता था। तीन अनजान लोगों को देखते ही 15-20 स्त्री-पुरुष-बच्चे जमा हो गये। हमने तमौनी का रास्ता पूछा। कोई बोला- वहाँ क्या करने जा रहे हैं? वहाँ तो कोई नहीं है। मैं चूँकि अपने इलाक़े, गाँव के क़रीब था, तो थोड़े कॉन्फिडेंस से अपने अंदाज़ में बोला- ‘क्यों, तुम लोग सबको मारिये दिये क्या?’ अचानक एक औरत चिल्लाई- ‘है सिनी जासूस छेकौ रे, देखै छँ की…’ 40-50 लोगों की भीड़ ने हमें घेर लिया! तभी अचानक एक बुजुर्ग देवदूत बन कर आ गये; पूछा- क्या बात है? हमने कहा, तमौनी जाना है, रास्ता पूछ रहे थे। क्यों जाना है? बताया कि बुआ का घर है। उन्होंने सबको डाँटा- क्यों परेशान करते हो। रास्ता बता कर कहा- जाइये। उसी बीच मैंने बबलू से कहा- डिकी से निकाल कर प्रेस वाला कार्ड आगे लगाओ। लगा कि पत्रकार की पहचान सेफ़ रहेगी। दस मिनट में तमौनी पहुँच गये। एक भी मुस्लिम परिवार वहाँ नहीं था। जो बचे थे, कहीं चले गये थे। मुसलमान बस 15 या बीस घर। सभी सम्पन्न। भागलपुर दंगे का वहाँ कोई असर-तनाव भी नहीं था। इलाक़े का एक कुख्यात अपराधी ट्रक से आया, लोगों की हत्या की और उनका सारा क़ीमती और भारी सामान उठा ले गया।

वहाँ हमें इतना डरा दिया गया कि अपने गाँव जाने के लिए बीच की एक मुस्लिम बस्ती सिमरिया से गुज़रने में हिचक गया. अँधेरा भी हो रहा था, तीन-चार किलोमीटर चक्कर लगा कर अपने गाँव पहुँचे। तय कर लिया कि अब बबलू को कहीं साथ नहीं ले जायेंगे।

दूसरे दिन भागलपुर में किसी ने बताया कि जगदीशपुर प्रखंड, जो मेरा भी ब्लॉक है, के गाँव लौगाँय में एक ही रात में एक सौ से अधिक मुसलमानों की हत्या हुई है। यह बात जानते सभी हैं, मगर किसी अख़बार में ख़बर नहीं छपी है। तय किया कि लौगाँय जायेंगे। कुछ लोगों ने मना भी किया कि छोड़ दीजिये, पुरानी बात हो गयी। पर नहीं जाने का सवाल नहीं था। घटना 28 या 29 अक्टूबर को हुई थी। मैं पहुँचा 20 या 21 नवंबर को। इस बार सिर्फ़ विजय के साथ। जाने के पहले शहर के मुस्लिम संगठनों के लोगों से मिले। उन्होंने कहा कि सीधे लौगाँय जाना रिस्की हो सकता है। बगल में एक गाँव है बबूरा। मिलीजुली बस्ती है। लौगाँय के बचे हुए लोग भी वहीं हैं। उनसे भेंट हो जायेगी। कुछ नाम भी बताया। वहाँ से जैसा समझ में आये। वह रास्ता-इलाक़ा मेरे लिए भी नया था, सड़क भी ठीक नहीं। क़रीब 12 बजे बबूरा पहुँचे। माहौल सामान्य था। लोगों का कहीं आना जाना बंद था, तो बाज़ारनुमा चौक पर चहल पहल थी। उस हादसे के बाद बाहर से कोई नहीं पहुँचा था। हम बाहरी थे, लोगों में सहज जिज्ञासा थी। मैंने बता दिया कि प्रेस से हूँ। लौगाँय के लोग भी मिले। पूछा कि गाँव में कुछ हिंदू ऐसे भी थे जिन्होंने आप लोगों को बचाने की कोशिश की? हमलावर गाँव के थे या बाहरी? किसी ने बताया कि मुखिया जी का परिवार हम लोग को बचाना चाहता था, लेकिन कुछ नहीं कर सके। हमलावर बाहर के थे। गाँव जाने का एक लिंक और आधार मिला। हमने मुखिया जी से मिलना तय किया।

तब लोकसभा चुनाव क़रीब थे, उसी तनाव के माहौल में प्रचार भी चल रहा था। केंद्र और बिहार में कांग्रेस की सरकार थी। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। भागलपुर में वीपी सिंह (जनता दल) का ज़ोर था। हिंदू और मुसलमान दोनों कांग्रेस से नाराज़ दिख रहे थे। कारण अलग अलग। हमने साथ में जनता दल का झंडा और कुछ परचा भी रख लिया था, शायद काम आये। और मुझे एहसास हो गया कि पत्रकार का परिचय यहाँ ख़तरे से खाली नहीं है, क्योंकि ये (जो दंगों में शामिल थे या उसे सही मानते हैं) पसंद नहीं करते कि बाहर का कोई आदमी उस बारे में कुछ जाने, पूछताछ करे। कुछ दूर चलते ही मैंने मोटरसाइकिल रोक कर विजय जी से कहा- पत्रकार वाला कार्ड हटाकर जनता दल का झंडा लगाइये। तभी अचानक एक ट्रैक्टर बगल में आकर रुका। 25-30 वर्ष का कड़क जवान। गठीला बदन, घनी मूँछें। पूछा- कौन हैं आप लोग, कहाँ जा रहे हैं? मैं बोला- क्यों पूछ रहे हैं? यहाँ किसी को कहीं जाने की मनाही है? वह बोला- हाँ, बाहरी अनजान आदमी को मनाही है। मैं- क्या कीजिएगा बाहर का आदमी आयेगा तो? उसने जो कहा, सुनकर हम सिहर गये। बोला- जैसे एक सौ को काटे थे, दो को और काट देंगे। तब तक उसकी नज़र जनता दल के झंडे पर पड़ गयी, नॉर्मल हो गया- अच्छा, पार्टी वाले हैं? हाँ, क्या हाल है हमारी पार्टी का? जवान ने खुद को राजपूत बताया, वीपी सिंह का फैन, बोला- वोट तो मिलिये जायेगा, लेकिन पार्टी की हालत ठीक नहीं है- न परचा-पोस्टर है, न झंडा. कहाँ जा रहे हैं? हमने बताया। ‘ठीक है, जाइये।’

दस मिनट में हम लौगाँय पहुँच गये। सड़क किनारे का गाँव था, लेकिन गाँव जाने के लिए कच्ची रास्ता; और चार चक्का तो क्या दो चक्के के जाने की स्थिति नहीं थी। जैसे युद्ध के मोर्चे पर सैनिक खंदक खोद देते हैं, उसी तरह सड़क काट दी गयी थी। शायद वह उपाय पुलिस की पहुँच को बाधित करने के लिए किया गया था। बाइक लगाकर हम पूछते हुए मुखिया जी के घर पहुँच गये। गाँव का नज़ारा देख कर लग रहा था कि यहाँ भीषण तबाही गुज़री है। दूर में कुछ जले हुए घर दिख रहे थे। हमारे रोंगटे खड़े हो गये। मुखिया जी भी राजपूत थे। घर पर नहीं थे। उनका नौजवान भतीजा था। हम जनता दल के कार्यकर्ता बन कर गये थे, कुछ परचा निकाल कर दिये। पार्टी का हाल पूछा। वह भी वीपी सिंह का फैन और जनता दल का समर्थक था। उत्साह से स्वागत हुआ। गरम-गरम पराठा, आलू की भुजिया, फिर चाय। चुनाव और राजनीति पर चर्चा करते हुए मैं अपने मक़सद तक पहुँचा, पूछा- क्या हुआ था? बड़ा सुनते हैं आपके गाँव का नाम। वह हँसते हुए बोला- अरे, जानबे करते हैं, सबको लगता था कि मियाँ लोग के घर में बहुत हथियार रहता है, तो वही लूटने गया था सब। कुछ नहीं मिला, लेकिन अब देख लिया तो मार दिया, भागलपुर का किस्सा सुनकर गुस्सा था ही, काट दिया।

कितने लोगों को काट दिये?

100 से ज्यादा ही।

लाशों का क्या किया?

यहाँ वहाँ खेत में गाड़ दिया सब। (बाद में पता चला कि लाशों को खेत में गहरे दफ़ना कर ऊपर सब्जी लगा दी गयी थी।)

फिर धीरे से पूछा- जले हुए घरों का कुछ फोटो ले सकते हैं? उसकी भृकुटि तन गयी- फोटो क्यों लेना है? मैंने कहा- एक तो फोटो खींचने का शौक है, फिर कुछ पत्रकार मित्र भी हैं। सब लोग जानता है कि हम यहाँ आ रहे हैं, तो फोटो दे देंगे।

उसका तेवर बदल चुका था. छोड़िये फोटो का बात, बहुत हो गया, अब आप लोग जाइये। मुझे भी लगा कि अब खिसकने में ही भलाई है। वापस लौटते समय इधर-उधर देखकर कि कोई देख तो नहीं रहा है, दूर से ही कुछ फोटो लिया। कुछ ढंग का आया भी नहीं। हम लोग लौट गये। जगदीशपुर होकर लौटना था। थाना पर रुके। दारोगा के साथ बीडिओ साहब भी थे। अपना परिचय दिया और बताया कि लौगाँय में तो इतनी बड़ी घटना हुई है, पुलिस को पता है? दोनों ने एक दूसरे को देखा। बीडिओ साहब ने पूछा- क्या दरोगा जी, ऐसा कुछ हुआ है? दरोगा जी बोले- हाँ सर, सुने थे। हम गये भी जाँच करने, पर ऐसा कुछ पता नहीं चला।

ज़ाहिर है, वे नाटक कर रहे थे। यह एहसास तो भागलपुर में ही हो गया कि पुलिस और प्रशासन का रवैया पक्षपातपूर्ण रहा था। हर दंगे की तरह पुलिस हिंदू पुलिस बन गयी थी। प्रशासन भी लचर और लाचार था। तब कांग्रेस का शासन था। वैसे किसी दल की सरकार हो, राजनीतिक नेतृत्व सजग और सख्त न हो तो ऐसे मौक़े पर यही होता है।

पता चला कि दंगा भड़कने के बाद पुलिस लोगों से कहती थी कि लूटो, उसमें से हिस्सा दो। अनेक स्थानों पर मुस्लिमों की दुकानों का ताला ग्रिल तोड़कर पुलिस के संरक्षण में लूट हुई थी।

खैर, 7 बजे तक अपने गाँव पहुँच गया, कुछ देर बाद भागलपुर चला गया। घर के लोगों ने रोकने का प्रयास किया- अँधेरा हो गया, मत जाओ। लेकिन मुझे रात में ही फोन करके रिपोर्ट देनी होती थी। ‘बाबूजी’ के आवास में फोन था। उस रात दफ़्तर को बता दिया कि बहुत बड़ी घटना का पता चला है। उधर से पूछा गया कि आप कैसे कह सकते हैं कि सौ लोगों‌ की हत्या हुई है? आपने लाश देखी? मैं जिस आधार पर घटना को सच मान रहा था, बताया। उसके बाद भागलपुर में जितने पत्रकारों का नंबर मेरे पास था, सबको बता दिया। पुलिस मुख्यालय को भी। पटना के एक अख़बार ने सूत्रों के हवाले से उसे बड़ी ख़बर के रूप में प्रकाशित किया, खुद क्रेडिट लिया; प्रभात खबर में नहीं छपी!

दूसरे दिन मुझसे पूछा गया कि और कितना दिन लगेगा? मैंने कहा- जब कहिये, लौट आते हैं। कहा गया- हाँ, बहुत दिन हो गया, चले आइये। 24 या 25 नवंबर को मैं देवघर रुकते हुए- वहाँ उसी दिन वोटिंग भी थी- राँची आ गया। आने के बाद पाँच या छह क़िस्तों में दंगे की रपट लिखी। वह छपी भी।

घटनाएँ तो बहुत हैं, पर फिर कभी। बस एक और रोचक-रोमांचक घटना… पटना से गाँधी शांति प्रतिष्ठान के दफ़्तर में एक मुस्लिम युवक आया। सुल्तानगंज के पास के किसी गाँव का। दंगे की ख़बर सुनकर परेशान था, गाँव आना चाहता था, पर सीधे जाने की हिम्मत नहीं पड़ी। चाहता था कि उसे सुरक्षित उसके गाँव पहुँचा दिया जाये। जयप्रकाश जय के नेतृत्व में हम तीन बाइक पर चले, उसे मिला कर कुल सात लोग। उसको बता दिया कि तुम्हारा नाम सोहन है। सबको समझा दिया गया कि भूलकर भी कोई उसके नाम से नहीं पुकारेगा। उसे भी समझा दिया गया कि कुछ बोलना नहीं है। सुल्तानगंज बाज़ार में हमने कहा कि चाय पी लेते हैं। जयप्रकाश जय झुँझला रहे थे- तुम लोग को चाय की पड़ी है, देख रहे हो कितना टेंशन है! फिर मान गये। वहाँ से चलकर उसके गाँव पहुँचे। अपने परिवार से मिलकर वह जिस तरह भावुक हुआ, दोनों तरफ़ से रोना-धोना हुआ, वह काफ़ी मर्माहत करने वाला था। न जाने कितने परिवारों पर ऐसी आफ़त लेकर आया था वह दंगा। गनीमत कि उसके परिवार में सभी सुरक्षित थे।

 

दंगे की पृष्ठभूमि

1984 के संसदीय चुनावों में दो सीटों पर सिमटने के बाद भाजपा ‘राम के शरण’ में चली गयी थी। उसके बाद से अयोध्या विवाद गरमाने लगा था। आंदोलन विहिप के बैनर से होता था, लेकिन जगज़ाहिर है कि संघ और भाजपा की पूरी ताक़त उसमें लगी हुई थी। भागलपुर में दंगा भड़कने का तात्कालिक कारण जो भी हो- मुस्लिम बस्ती से जुलूस ले जाने पर आपत्ति, प्रशासन द्वारा अलग रूट तय हो जाने के बावजूद जुलूस उसी मार्ग से ले जाने की जिद, प्रशासन में आपसी मतभेद, पुलिस का रवैया वगैरह- लेकिन मूल कारण वह माहौल था जो ‘रामशिला’ को लेकर निकाले गये जुलूस के कारण बना था। 24 अक्टूबर के तीन-चार दिन पहले से माहौल तनावपूर्ण हो गया था। जगह-जगह से झड़प की सूचना मिल रही थी। गाँव-गाँव से ‘रामशिला’ जुलूस गुज़रता था। कहने को धार्मिक नारे लगते थे, असल में ‘हिंदुओं का खून खौलाने’ वाले, भड़काऊ और मुसलमानों को चिढ़ाने-डराने वाले। जैसे- ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान, मुल्ला भागो पाकिस्तान’ और ‘बाबर की औलादो…’ आदि।

इस तरह के दंगों या सांप्रदायिक हिंसा के भड़कने के बाद अक्सर पूछा जाता है कि हिंसा की शुरुआत किसने की? पहला पत्थर किसने चलाया? यह सवाल नहीं किया जाता कि गाँव और शहर को इतना विषाक्त किसने बनाया? धर्मोन्माद कौन लोग भड़का रहे थे? चारों ओर बारूद और पेट्रोल किन लोगों ने छिड़क दिया था कि माचिस की एक तीली से पूरा शहर जल गया?

बाद में कभी बाबूजी ने कहा था- ज़रा सोचिये कि कुछ लोग एक ईंट को ‘रामशिला’ बता कर मुसलमान के घर के सामने से, उनके मोहल्ले से गुज़रते हैं और कहते हैं कि देखो, तुम्हारी मसजिद तोड़ कर इसी ईंट से वहीं पर मंदिर बनायेंगे; और ये चाहते हैं कि वे इनका स्वागत करें! नहीं करें, तो वे सांप्रदायिक हैं!

उनकी बात विचारणीय थी/ है!

भरसक प्रयास किया कि संक्षेप में लिखूँ। सफल नहीं हुआ। मगर उस दंगे की एक और पृष्ठभूमि थी, जिस कारण माहौल पहले से तनावपूर्ण बन चुका था, और जिसका उल्लेख ज़रूरी है।

उन दिनों शहर में दो मुस्लिम अपराधी गिरोह सक्रिय और प्रभावी थे, उनका आतंक था। दोनों के बीच आपसी रंजिश भी थी। और माना जाता है कि दोनों को बिहार के कांग्रेस के दो शीर्ष नेताओं का संरक्षण हासिल था। उन नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई के कारण ज़िला प्रशासन में भी खेमे थे। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक केएस द्विवेदी और ज़िलाधिकारी (डीएम) अरुण झा की आपस में नहीं बनती थी, इस कारण भी 24 अक्टूबर को हालत को ढंग से काबू नहीं किया जा सका।

उन्हीं दिनों एक अपराधी गिरोह ने एक डीएसपी की हत्या कर दी, शायद जिंदा जला दिया था। शहर-समाज में स्वाभाविक आक्रोश था। उसके कुछ दिन बाद पुलिस ने 8 अपराधियों का एनकाउंटर किया। संदेह था कि वह फ़र्जी मुठभेड़ थी, मरने वाले सभी मुस्लिम। आम हिंदू उस ‘मुठभेड़’ को सही और ज़रूरी मान रहा था। मुस्लिम समाज पक्षपात, हत्या। हिंदू मुसलमान के बीच की दरार थोड़ी और बढ़ गयी। इस बीच बिसहरी पूजा के आयोजन में परबत्ती, जहाँ मिलीजुली आबादी थी, में विसर्जन के समय झड़प हो गयी। तनाव और बढ़ गया।

ऐसे माहौल में रामशिला जुलूस के आयोजन से पूरे ज़िले में हिंसक टकराव का माहौल बनता गया, जिसका विस्फोट 24 अक्टूबर को भागलपुर में हुआ।

कुछ और-

स्वाभाविक है कि ऐसे माहौल में दोनों तरफ़ के गुंडे अपने-अपने समाज के नायक बन जाते हैं। हिंदू गुंडे घरों की सुरक्षा के नाम पर वसूली करने लगे। मुस्लिम अपराधी भी अपने समाज के हीरो थे।

 

नफ़रत और हिंसा के बीच भी उम्मीद के दीपक

*_शहर के हिंदू एरिया में लगभग सभी मसजिदों, दरगाहों पर हमले हुए, यहाँ तक कि कमिश्नरी के पास स्थित मुग़ल शासक औरंगजेब के भाई शुजा, जिसके नाम पर ही शायद सूजागंज बाज़ार भी है, के कथित मज़ार को भी नष्ट कर दिया गया। मगर एक मज़ार बच गयी- घूरन बाबा या ‘पीर बाबा’की। इसलिए कि हिंदू भी वहाँ सिर नवाते थे। आदमपुर घाट से नहा कर लौटते हुए वहाँ जल और फूल चढ़ाने की परंपरा रही है, सो ‘पीर बाबा’ बच गये।

*_एक हिंदू ने अपने घर में 40 मुसलिम शरणार्थियों को शरण दे रखी थी। उत्तेजक हिंदू भीड़ ने घर को घेर लिया- उनको हमारे हवाले करो। लेकिन वह आदमी बंदूक लेकर सामने खड़ा हो गया कि जो सामने पड़ा उसको गोली मार देंगे।

*_ढेवर द्वार‌‌ के पास एक जैन परिवार के अहाते में एक आतंकित दर्ज़ी (मुस्लिम) उनकी जानकारी की बिना छिप कर रह रहा था। जब उन्होंने देखा तो वह पैरों पर गिर गया- आप तो हमको जानते हैं, हम आपका कपड़ा सीते रहे हैं, जान बचा लीजिये। उस परिवार ने उसकी रक्षा का आश्वासन दिया और निभाया। बावजूद इसके कि आसपास के उत्तेजित हिंदू उन पर दबाव डाल रहे थे कि उसको बाहर निकालिये, वे अड़ गये।

किसी भी सांप्रदायिक दंगे की जवाबदेही से संबद्ध राज्य सरकार बच नहीं सकती, भले ही दंगे की वजह जो भी रही हो। दंगा हुआ, उस पर तत्काल काबू नहीं पाया जा सका, एक हज़ार से अधिक लोग मारे गये, इससे ज़िला प्रशासन, यानी राज्य सरकार की अक्षमता साबित होती ही है। इस लिहाज से भागलपुर दंगों के दाग भी कांग्रेस पर हमेशा लगे रहेंगे। और तथ्य यह है कि उसके बाद कांग्रेस दोबारा बिहार में सत्ता में नहीं लौट सकी है। हालाँकि इसके लिए सीधे उन दंगों को कारण नहीं माना जा सकता, न ही यह कहा जा सकता है कि दंगे कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार द्वारा प्रायोजित थे।

और रोचक विडंबना यह भी कि जिस भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों (संघ और विहिप) की कारगुज़ारियों की उनमें प्रत्यक्ष भूमिका थी: और जो इसी उन्माद की लहर पर सवार होकर लोकसभा में ’84 की दो सीटों से ’89 के चुनाव में 85 तक पहुँच गयी, आज हिंदी पट्टी पर जिसकी तूती बोल रही है, दस साल से केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ है, वह भी अब तक बिहार की राजनीति में अपने दम पर सत्ता नहीं पा सकी है।

एक सच यह भी है कि उस दंगे में लूट और हिंसा में शामिल जो ‘हिंदू फौज’ थी, उसका मुख्य हिस्सा पिछड़े वर्ग से आता था। यह कोई नयी बात नहीं थी। हमेशा से ऐसा ही होता रहा है। हालाँकि 90 के बाद बिहार का राजनीतिक परिवेश और सामाजिक समीकरण बदला। ख़ासकर यादवों का। राजनीतिक स्वार्थ से ही सही, लेकिन उनका मुस्लिम विरोधी तेवर नरम पड़ा।

तब दंगे की रपट के अंत में जो लिखा था, आज पुनः याद से उसे दुहराने का प्रयास करता हूँ –

भागलपुर में जो देखा-सुना और महसूस किया, उससे एक जन्मना भागलपुरी, बिहारी, हिंदू और भारतीय होने पर शर्मिंदगी का एहसास हो रहा है…

इस पर भागलपुर के ही एक पत्रकार मित्र का कमेंट था- आपको ऐसा नहीं लिखना चाहिए था। लेकिन वह एहसास अब भी क़ायम है, शायद कभी नहीं जायेगा.. इति.

श्रीनिवास; 24 अक्टूबर, 2024


4 thoughts on “अतीत के दाग़ : बहराइच के बहाने 1989 के भागलपुर दंगे की आँखों-देखी / श्रीनिवास”

  1. यह रूह कँपा देने वाली रिपोर्ट है।
    भागलपुर दंगे पर इतनी विस्तृत रपट पहली बार पढ़ी।
    श्रीनिवास जी जैसी *प्रतिबद्ध तटस्थता* दुर्लभ है।
    नया पथ को यह रिपोर्ट छापने के लिए धन्यवाद।

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  2. बहुत सुंदर ,तथ्यपरक,हृदय विदारक और आंखों देखी रिपोर्टिंग।
    चंदेरी,ततारपुर आदि के उस वक्त के मानवविरोधी भयानक दंगे का मंजर आंखों के सामने घूमने लगा. चंदेरी में लाशों पर मूली और साग उगा दिए गए. चंदेरी के उस दंगे में जो अकेली लड़की बची थी, उसके माध्यम से दुनिया को इस इंसानियत सोज़ फसाद की खबर हुई थी,शायद उस लड़की का नाम शहनाज था,अगर मेरी स्मृति साथ दे रही है तो।
    श्रीनिवास जी की निष्पक्ष रिपोर्टिंग बहुत ही भावुक करने वाली है. श्रीनिवास जी के साथ मुझे काम करने मौका मिला है. मैं इनकी इज्जत करता हूं. साफ सुथरे और सेकुलर छवि के हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों पर गहरी आस्था रखते हैं.
    दंगे के समय वहां एक विवादित एसपी थे जो बाद में तरक्की पाते हुए डी जी पी तक पहुंचे, राजीव गांधी जब भागलपुर दौरे पर पहुंचे थे तो एसपी की विवादित भूमिका से परिचित हुए थे. उन्होंने एसपी के ट्रांसफर का आदेश भी दिया था लेकिन दबाव के कारण अपने आदेश को उन्हें वापस लेना पड़ा जिसका नतीजा ये हुआ कि दंगा और तेजी से भड़क गया . मुसलमानों की और क्षति हुई.
    श्रीनिवास जी अपनी आंखों देखी उस एस पी जिक्र नहीं किया है. लगता भूलवश चूक हुई है. यही वही एसपी साहब हैं जो विधानसभा का चुनाव जेडीयू अथवा भाजपा के टिकट पर लड़ना चाहते थे ,लंबी चौड़ी लॉबिंग भी कर रखी थी लेकिन टिकट नहीं मिला .

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  3. एक दस्तावेजी लेखन। मेरे जैसे लोग लोग उस समय बच्चे थे । सही मायनों में इस लेख से ही भागलपुर के दंगों को जान पा रहा हूं। लेखक के प्रति आभार।

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