नेहरू केवल भाषणों में ही महान नहीं थे / महेश मिश्र


‘नेहरू केवल भाषणों में ही महान नहीं थे—उनके कर्म उनके शब्दों से एक क़दम आगे रहते थे। उन्होंने पहले आम चुनाव को ही वस्तुतः इस प्रश्न पर जनमत संग्रह बना दिया कि देश की प्रकृति कैसी होनी चाहिए—पाकिस्तान जैसा सांप्रदायिक राष्ट्र या एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य।’ –आदित्य मुखर्जी की किताब Nehru’s India पर महेश मिश्र की सुचिन्तित टिप्पणी:

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“मैं अत्यंत व्यथित हूँ… जिस प्रकार कुछ अख़बार हिंसा भड़काते हैं, झूठी अफ़वाहें और सरासर असत्य फैलाते हैं। अतः मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि जो अख़बार सांप्रदायिक घृणा और हिंसा फैलाते हैं, उन्हें नियंत्रित किया जाना चाहिए। मैं हर प्रकार की स्वतंत्रता के पक्ष में हूँ, लेकिन यदि स्वतंत्रता का अर्थ है दंगे कराना, लोगों को भड़काना, दूसरों की स्वतंत्रता छीनना या घृणा फैलाना—तो ऐसी गतिविधियों को क़ानून द्वारा रोका जाना चाहिए और कठोरता से निपटा जाना चाहिए। हम यह कदापि अनुमति नहीं देंगे कि किसी भी समुदाय—चाहे वे हिन्दू हों, मुस्लिम हों, सिख हों या ईसाई—के लोग सांप्रदायिक हिंसा या घृणा फैलाएँ। मैं अपने गृह मंत्री श्री गोविंद बल्लभ पंत को सुझाव देने जा रहा हूँ कि शीघ्रातिशीघ्र एक क़ानून बनाया जाए, क्योंकि यह स्थिति अब और अधिक सहनीय नहीं है कि अख़बार जानबूझकर झूठ और अफ़वाहें फैलाएँ, शत्रुता उत्पन्न करें और इससे धन कमाएँ, बजाय इसके कि उन्हें दंडित किया जाए।”

— जवाहरलाल नेहरू

(रामलीला मैदान, 23 सितंबर 1956 को द्वितीय आम चुनाव से ठीक पहले दिया गया भाषण)

ये शब्द प्रोफ़ेसर आदित्य मुखर्जी की प्रेरक पुस्तक नेहरू’ज़ इंडिया: पास्ट, प्रेज़ेंट एंड फ़्यूचर  की भावभूमि निर्मित करते हैं। ऐसे समय में जब संकीर्णता, बहुसंख्यकवाद और सत्तावादी प्रवृत्तियाँ वैश्विक स्तर पर उभार पर हैं, तब ऐसे नेता के बारे में जानना, उनके संबंध में प्रामाणिक तथ्यों को खोजना, और उस नैतिक दिशा-सूचक को महसूस करना जो एक बड़े भूभाग की अस्मिता के पक्ष में स्पष्ट रूप से बोलता था — निःसंदेह एक गरिमामयी उत्तरदायित्व का बोध कराता है। प्रो. आदित्य मुखर्जी ने यह पुस्तक नेहरू की रक्षा के रूप में कम, और आधुनिक भारत के आधारभूत मूल्यों की खोज तथा उनकी पुनर्पुष्टि के रूप में अधिक लिखी है। यह एक खोज है — और साथ ही साथ यह उस प्रगतिशील मूल्य-व्यवस्था का रेखांकन है, जो भारत वास्तव में विश्व के समक्ष प्रस्तुत करता है या उसे करना चाहिए।

इस पुस्तक में ऐसे कई ठोस कारण हैं यह मानने के लिए कि यह केवल आधुनिक भारत के एक प्रमुख शिल्पी की योगदान-यात्रा को ही उजागर नहीं करती, बल्कि उन सभ्यतागत मूल्यों और आकांक्षाओं को भी सामने लाती है जिन्हें हमारे स्वतंत्रता आंदोलन ने संजोया और परिभाषित किया। आकार में छोटी होने के बावजूद यह पुस्तक नेहरू की एक राष्ट्रनायक की छवि को सुदृढ़ता से निर्मित करती है; यह तर्कों और उद्धरणों से समृद्ध है और पाठकों के मन में नेहरू की एक पूर्ण तस्वीर खींच देती है। यह लोकतंत्र में हो रही विखंडन की प्रक्रिया को पहचानती है, उसके समक्ष खड़ी चुनौतियों को सामने रखती है, और नेहरू के परिश्रमी स्वभाव को रेखांकित करती है, जिसने एक नव-स्वतंत्र राष्ट्र के लिए मज़बूत लोकतांत्रिक नींव रखी। यह नेहरू के प्रयासों का मूल्यांकन करती है और आज जो आलोचनाएँ की जाती हैं, उनके उत्तर में उनके बहुआयामी प्रयासों को सामने लाती है।

यह पुस्तक आठ छोटे अध्यायों में विभाजित है: नेहरू का दानवीकरण, इतिहास के अनुशासन और नेहरू, भारत की संकल्पना और नेहरू, सांप्रदायिक चुनौती पर नेहरू, लोकतंत्र का निर्माण, लोकतंत्र और संप्रभुता के साथ आर्थिक विकास, ग़रीबों पर केंद्रित दृष्टि बनाए रखना, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण। इसके अतिरिक्त, प्रोफेसर इरफ़ान हबीब की एक संक्षिप्त भूमिका भी शामिल है।

नेहरू ने भारत को इसकी सभ्यतागत विशेषताओं—उसकी शक्तियों और कमज़ोरियों—के साथ दूसरों की तुलना में कहीं अधिक गहराई से, सटीकता और समग्रता से समझा। द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया  में वे यह बखूबी दर्शाते हैं कि भारत किस प्रकार अद्वितीय है, और यह कार्य वे बिना भावुकता या अतिरेक के करते हैं। जब नेहरू इस कृति की रचना कर रहे थे, उस समय इतिहास को देखने की दो प्रमुख दृष्टियाँ प्रचलित थीं—औपनिवेशिक और सांप्रदायिक। दोनों ही दृष्टिकोण अतीत के किसी भी संघर्ष को वर्तमान में हथियार की तरह इस्तेमाल करने का प्रयास कर रहे थे।

प्रोफेसर मुखर्जी की पुस्तक का यह अध्याय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि इन संघर्षों से उत्पन्न तथाकथित ‘सामूहिक आघात’ (trauma) की व्याख्या, जो औपनिवेशिक और सांप्रदायिक इतिहास-लेखन में प्रमुखता से आयी, वह ऐतिहासिक रूप से बहुत बाद में गढ़ी गयी थी। प्रोफेसर मुखर्जी इसका उदाहरण सोमनाथ मंदिर के विध्वंस और उसके इर्द-गिर्द गढ़ी गयी स्मृतियों से देते हैं, जिसे पहले औपनिवेशिक इतिहास-लेखन ने गढ़ा और फिर सांप्रदायिक इतिहासकारों ने उसे बिना आलोचना के अपना लिया। वे रोमिला थापर के अध्ययन को आधार बनाते हैं।

वे नेहरू की इतिहास दृष्टि को उद्धृत करते हैं—नेहरू मानते थे कि इतिहास को सामाजिक होना चाहिए, उसका वैश्विक परिप्रेक्ष्य होना चाहिए, उसमें एक व्यापक दृष्टिकोण होना चाहिए, विभिन्न घटकों के बीच पारस्परिक संबंध स्थापित किये जाने चाहिए और उसका उद्देश्य एक प्रगतिशील भविष्य की ओर उन्मुख होना चाहिए।

हालाँकि मेरी सीमित जानकारी में यह अनुभाग केवल आंशिक रूप से ही इस विषय को संबोधित कर पाया है। इसमें मध्यकालीन इतिहासकारों की टिप्पणियों, विशेष रूप से मुस्लिम (या सांप्रदायिक?) इतिहासकारों और मंदिरों के विध्वंस का उत्सव मनाने वाली प्रवृत्तियों का उल्लेख नहीं किया गया है। एक हज़ार वर्षों की लोककथाएँ, आख्यान और विवरण—फ़ारस तथा अन्य मुस्लिम देशों में—सोमनाथ जैसे मंदिरों के विध्वंस को गौरव के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह पक्ष पुस्तक में अनुपस्थित है और इसका उपयुक्त खंडन भी नहीं किया गया है। मेरी दृष्टि में, इस विषय को भारतीय साहित्यिक और लोक परंपराओं के साथ समानांतर रूप से पुस्तक में अवश्य खंगालना चाहिए था।

पुस्तक में जो बात मुझे सर्वाधिक सही प्रतीत होती है, वह है नेहरू का एक ऐसे व्यक्ति के रूप में विकसित होना, जो भारतीय सभ्यता के प्रतिनिधि मूल्यों का वास्तविक अन्वेषक बनता है। यहीं पर नेहरू गाँधीजी से सीखते हैं कि चाहे लक्ष्य कितना भी उत्तम क्यों न हो, उसके साधन नैतिक और अहिंसक होने चाहिए। सत्य के विविध रूपों की स्वीकृति ने भारतीय प्रयोग को यूरोपीय ‘प्रबोधन’ (Enlightenment) के लक्ष्यों की सच्ची प्रतिनिधि दिशा दी—जैसा कि टड ग्राहम फ़र्नी (Tadd Graham Fernee) के कार्य से निष्कर्ष निकाला जा सकता है। फ़र्नी यूरोपीय प्रबोधन परियोजना की तुलना भारतीय, तुर्की और ईरानी आधुनिकता की ओर संक्रमण के प्रयासों से करते हैं, विशेष रूप से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की गाँधीजी के नेतृत्व में चली उस धारा से, जिसे वे ‘सुलह की नैतिकता के रूप में जन आंदोलन’ कहते हैं। साथ ही स्वतंत्रता के बाद नेहरूवादी प्रयास को इसी परंपरा से जोड़ते हुए ‘राष्ट्र निर्माण में सुलह की नैतिकता’ के रूप में व्याख्यायित करते हैं।

सत्य के विविध रूपों की स्वीकृति और उन्हें अहिंसा के माध्यम से समन्वित करने की आवश्यकता—भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन का सबसे महान और जीवन्त पक्ष है। गाँधीजी के शब्दों और कर्मों का गहन पाठ (क्या हम इसे उनका प्रैक्सिस न कहें?) हमें इस निष्कर्ष तक पहुँचाता है कि ये मूल्य हमारी सभ्यता के प्रतिनिधि मूल्य हैं—या कम से कम ऐसे होने चाहिए, और थोड़े-बहुत सामान्यीकरण का जोख़िम उठाकर भी इन्हें इसी तरह समझा और उत्सवपूर्वक मनाया जाना चाहिए।

इस खंड में नेहरू के योगदान को नोबेल पुरस्कार विजेता, मेक्सिकन कवि और चिंतक ऑक्टावियो पाज़ के शब्दों में समेटा गया है—”यह उल्लेखनीय है कि नेहरू, जो मुख्यतः एक राजनीतिक नेता थे, इतिहास की अंतर्विरोधी प्रवृत्तियों को नृशंस बल या भाषायी कौशल से दबा देने के लोभ में नहीं फँसे। यह बात आज की उस दुनिया में विलक्षण है जहाँ कट्टर मैनिकियन दृष्टिकोण (जो सब कुछ को केवल काले या सफेद में देखते हैं) और इतिहास के दार्शनिकों के वेश में ज़ल्लाद मौजूद हैं। नेहरू ने स्वयं को न तो परम अच्छाई का प्रतिनिधि बताया और न ही पूर्ण सत्य का, बल्कि उन्होंने मानव स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व किया—मनुष्य और उसकी अंतर्विरोधी प्रवृत्तियों का। वे अपने अंतर्विरोधों के प्रति ईमानदार रहे, और इसी कारण न तो उन्होंने दूसरों की हत्या की और न स्वयं को विकृत किया।”

जो लोग भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उत्पत्ति से परिचित हैं, वे यह जानते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में कुछ बुनियादी मूल्य समाहित थे, जिन्हें लोकप्रिय रूप से ‘भारत की संकल्पना’ (Idea of India) के रूप में जाना गया। इन मूल्यों को कुछ निर्णायक शब्दों में समेटा जा सकता है—संप्रभुता (आत्मनिर्भरता, स्वतंत्रता, और साम्राज्यवाद के हर रूप का प्रतिरोध), धर्मनिरपेक्षता (धर्म की परवाह किये बिना सभी को समान अधिकार), और लोकतंत्र (सार्वभौमिक मताधिकार, लिंग, वर्ग, जाति, धर्म, क्षेत्र आदि की परवाह किये बिना समान अधिकार)। निर्धन जनों का उत्थान उन प्राथमिक उद्देश्यों में शामिल था, जिनके लिए संगठन बने और उपनिवेशवाद से लड़ा गया।

यदि हमें वास्तव में उस ‘भारत की संकल्पना’ से सरोकार है जिसे राष्ट्रीय आंदोलन ने हमारे लिए अर्जित किया, तो हमें इन मूल्यों पर अधिक गहराई से, अधिक उत्साह से, और अधिक संकल्पबद्ध होकर विचार करना चाहिए। साथ ही, यह भी समझना होगा कि ये मूल्य एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। किसी एक मूल्य का पतन, पूरे वैचारिक ढाँचे की जड़ों को कमज़ोर करता है जो हमारे राष्ट्र की आधारशिला है।

और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हम सब यह समझने के अधिकारी हैं कि नेहरू ने इन मूल्यों का सबसे सशक्त और समग्र रूप में प्रतिनिधित्व किया था।

इस पुस्तक का एक सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है सांप्रदायिकता पर नेहरू का दृष्टिकोण—सिर्फ़ सैद्धांतिक नहीं, बल्कि यह भी कि उन्होंने एक ‘क्रियाशील व्यक्ति’ के रूप में इसका सामना कैसे किया।

स्वतंत्रता के साथ ही सैकड़ों-हज़ारों शरणार्थी पूर्वी पंजाब और दिल्ली में आ पहुँचे और इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हिंसा फैल गयी। 16 अगस्त, 1947 को दिल्ली के लाल किले से अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में नेहरू ने स्पष्ट कर दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा, न कि पाकिस्तान की तरह एक हिंदू राष्ट्र। उन्होंने घोषणा की:

‘सरकार का पहला दायित्व देश में शांति और व्यवस्था की स्थापना करना और सांप्रदायिक संघर्ष को बेरहमी से दबाना होगा… यह कहना सरासर ग़लत है कि इस देश में किसी एक धर्म या संप्रदाय का शासन होगा। जो भी तिरंगे को अपना मानता है, उसे जाति और पंथ की परवाह किये बिना समान नागरिक अधिकार प्राप्त होंगे।’

नेहरू केवल भाषणों में ही महान नहीं थे—उनके कर्म उनके शब्दों से एक क़दम आगे रहते थे। उन्होंने पहले आम चुनाव को ही वस्तुतः इस प्रश्न पर जनमत संग्रह बना दिया कि देश की प्रकृति कैसी होनी चाहिए—पाकिस्तान जैसा सांप्रदायिक राष्ट्र या एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य।

नेहरू भारतीय सभ्यता के शाश्वत मूल्यों में गहरी आस्था रखते थे। यदि ऐसा न होता तो वे यह नहीं कह पाते कि भारत का सांस्कृतिक अतीत इसलिए गौरवशाली रहा है क्योंकि उसने सांप्रदायिक तरीकों को नहीं अपनाया। नेहरू की दृष्टि में सांप्रदायिक हिंदू, सांप्रदायिक मुस्लिम या सांप्रदायिक सिख—तीनों ही राष्ट्रद्रोही माने जाने चाहिए। उनके साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिए—कभी नहीं।

नेहरू 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा अपनायी गयी ‘फूट डालो और राज करो’ नीति को भली-भाँति समझते थे। अंग्रेज़ों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच मतभेदों को वैचारिक विरोध में बदलने की चतुर रणनीति अपनायी—आगा खाँ और सर सैयद जैसे नेताओं को महत्व देकर और मुस्लिम समुदाय को ‘रियायतें’ देकर उन्होंने सांप्रदायिक विभाजन को गहराया।

पुस्तक में यह भी विश्लेषण किया गया है कि हिंदुओं की जो “घावग्रस्त मानसिकता” कही जाती है, नेहरू उसे एक ठोस ऐतिहासिक सत्य की तुलना में राजनीतिक निर्मिति (political construct) मानते थे, और इसके उदाहरण भी दिये हैं। हालाँकि, यह खंड पाठकों को और अधिक गहराई और व्यापक विश्लेषण की अपेक्षा के साथ छोड़ देता है।

लेकिन नेहरू किसी स्वप्नदर्शी आदर्शवादी की तरह नहीं थे जो सांप्रदायिकता के पूरे ख़तरे को न समझ पाये हों। उन्होंने भावी पीढ़ियों को इस ख़तरे के स्वरूप के बारे में चेताया था। उन्होंने सांप्रदायिकता की तुलना फ़ासीवाद से की थी—

सांप्रदायिकता में उन तमाम रूपों से अप्रत्याशित समानता है जिन्हें हमने अन्य देशों में फ़ासीवाद के रूप में देखा है। यह वास्तव में भारत में फ़ासीवाद का ही एक रूप है… यह मानव की सबसे निकृष्टतम वृत्तियों को उकसाता है।

नेहरू सांप्रदायिकता की इन नीचतम भावनाओं को उकसाने वाले विविध कारणों को भली-भाँति समझते थे। उन्होंने इसे भारतीय भूमि से उखाड़ फेंकने के लिए हर संभव प्रयास किया। यह कहा जा सकता है कि नेहरू इसमें विफल नहीं हुए।

लेकिन हम पूरी तरह आश्वस्त होकर यह नहीं कह सकते कि गणराज्य के बाद के काल में जो सांप्रदायिकता की ओर धीरे-धीरे फिसलन हुई, उसका नेहरूवादी मॉडल की कुछ कमज़ोरियों से कोई संबंध नहीं है—विशेषतः उन सांस्कृतिक उत्पादों, पाठ्यपुस्तकों और इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्याओं की उपेक्षा, जिन्हें प्रभावी ढंग से संबोधित नहीं किया गया। प्रोफ़ेसर मुखर्जी की यह पुस्तक नेहरू के सांप्रदायिकता-विरोधी प्रयासों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है, लेकिन वर्तमान समय की गिरावट का विश्लेषण अपेक्षित विस्तार से नहीं कर पाये हैं।

Nehru’s India स्वतंत्र भारत के आर्थिक मॉडल को खूबसूरती से सामने लाती है और यह दृढ़ता से सिद्ध करती है कि आज की ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था की नींव नेहरू के काल में रखी गयी थी।

यह पुस्तक मेघनाद देसाई और अन्य आलोचकों द्वारा आर्थिक नीतियों पर की गयी आपत्तियों का भी प्रभावी उत्तर देती है।

पुस्तक का मूल्यांकन हम राजमोहन गांधी (प्रोफेसर, यूनिवर्सिटी ऑफ़ इलिनॉय) के शब्दों में कर सकते हैं: “एक अमूल्य अध्ययन… लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संविधान के रक्षकों के हाथ में एक बौद्धिक अस्त्र।”

आज भी, नेहरू-युग में पोषित संवैधानिक मूल्य—जो सत्ता को ‘संवैधानिक नैतिकता’ के नाम पर सीमित करते हैं—हमारी संस्थाओं और लोकतांत्रिक परंपराओं में सक्रिय हैं और हमारे राष्ट्र की आत्मा को गढ़ते हैं।

जैसा कि नोम चॉम्स्की ने कहा था, “सत्ता-संरचनाएँ चुप्पी और दब्बूपन की वजह से फलती-फूलती हैं। परिवर्तन की ओर पहला कदम है—उस समय भी प्रश्न उठाने का साहस जब आपके चारों ओर जड़ता फैली हो।”

पुस्तक: Nehru’s India: Past, Present & Future, लेखक: आदित्य मुखर्जी प्रकाशन: द पेंगुइन हिस्ट्री ऑफ़ मॉडर्न इंडिया, विंटेज पेंगुइन, पृष्ठ: 210, मूल्य: ₹499.


1 thought on “नेहरू केवल भाषणों में ही महान नहीं थे / महेश मिश्र”

  1. मुकम्मल, सुगठित लेख। पुस्तक में वर्णित नेहरू के विजन की प्रवाहमयी प्रस्तुति। पुस्तक और उसके चरित नायक के भारत की सही पहचान की सुस्थापना और उनके कालजयी योगदान को खूबसूरती से प्रस्तुति करते हुए भी यह स्तुतिपरक लेख नही है और अपेक्षित पक्षों की ओर भी ध्यान दिलाता है जिन्हें जोड़ा या विस्तारित किया जा सकता था। मैं , महेश जी के ही शब्दों में एक महत्वपूर्ण पक्ष को उध्दृत कर रहा हूँ, जिसकी , इस पुस्तक के अलावा भी, शायद अनदेखी हुई है। अगर यह अनदेखी न होती तो अपने देश -समाज के मानविकी ज्ञान की तस्वीर और भी पूर्ण हो सकती थी:

    “मध्यकालीन इतिहासकारों की टिप्पणियों, विशेष रूप से मुस्लिम (या सांप्रदायिक?) इतिहासकारों और मंदिरों के विध्वंस का उत्सव मनाने वाली प्रवृत्तियों का उल्लेख नहीं किया गया है। एक हज़ार वर्षों की लोककथाएँ, आख्यान और विवरण—फ़ारस तथा अन्य मुस्लिम देशों में—सोमनाथ जैसे मंदिरों के विध्वंस को गौरव के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह पक्ष पुस्तक में अनुपस्थित है और इसका उपयुक्त खंडन भी नहीं किया गया है। मेरी दृष्टि में, इस विषय को भारतीय साहित्यिक और लोक परंपराओं के साथ समानांतर रूप से पुस्तक में अवश्य खंगालना चाहिए था।”

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