समता की ओर समाज : स्त्री अध्ययन का वर्तमान / बजरंग बिहारी तिवारी


‘यह पुस्तक आसान भाषा में पश्चिमी और भारतीय स्त्री विमर्श का सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करती है।’–डॉ. रमा नवले की पुस्तक ‘स्त्री विमर्श : अवधारणा और स्वरूप’ पर बजरंग बिहारी तिवारी की समीक्षा।

 

‘त्रिया चरित्र’ को विधाता के लिए भी अबूझ मानने वाली दुनिया में स्त्री अध्ययन (जेंडर स्टडीज़) का आरंभ मामूली बात नहीं है। पितृसत्ता की कई जानी-अनजानी परतों में लिपटे समाज को स्त्री अध्ययन की, फेमिनिस्ट एप्रोच की बहुत ज़रूरत है। यह चिंता की बात है कि हिंदी में अभी उच्चतर कक्षाओं के लिए स्त्री अध्ययन की स्तरीय पाठ्य पुस्तकों की बहुत कमी है। इन वर्षों में मैंने तीन किताबें देखीं जो पाठ्य सामग्री के लिहाज से बेहतर लगीं। पहली किताब है उमा चक्रवर्ती, साधना आर्य, वसंती रामन और विजय झा के द्वारा संपादित ‘स्त्री अध्ययन’ (2021)। दूसरी वी. के. सिंह द्वारा दो खण्डों में ‘पश्चिम में फेमिनिज्म’ और ‘आधुनिक भारत में औरत के सपने और संघर्ष’ (2022)। तीसरी किताब जो अभी मेरे हाथ में है वह डॉ. रमा नवले द्वारा लिखित ‘स्त्री विमर्श : अवधारणा और स्वरूप’ (2024)। यह पुस्तक आसान भाषा में पश्चिमी और भारतीय स्त्री विमर्श का सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करती है। स्त्री विमर्श के प्रति समाज में गंभीरता का भाव आधा-अधूरा ही आया है। मुझे याद है कि जेएनयू में एम.फिल. कर रही मेरी एक सीनियर को एक राष्ट्रीय दैनिक के संपादक ने महिलाओं पर सीरीज़ लिखने का ऑफर दिया था। सीनियर ने पितृसत्ता के भारतीय स्वरूप पर लेखमाला तैयार करने की योजना बनाई। अखबार को पहला लेख भेजा। संपादक ने बुलाकर समझाया कि यह लेख भी छाप देंगे लेकिन महीना अक्टूबर का है और इसी समय स्वेटर बुनने की तैयारी की जाती है। तुम पहले इस विषय पर लेख दो कि महिलाएँ देवर और जेठ के स्वेटर बुनने में किन अंतरों का, किन पहलुओं का ध्यान रखें। स्त्री लेखन और स्त्री विमर्श के बारे में आम समझ और अपेक्षा कुछ ऐसी ही है।

किताब के पहले अध्याय में डॉ. रमा नवले ने जेंडर और सेक्स/लिंग का भेद समझाया है। अक्सर लोग दोनों को पर्याय समझ लेते हैं लेकिन जेंडर मानव निर्मित है जबकि सेक्स जैविक या कुदरती। मानव निर्मित कहने का अर्थ है कि जेंडर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से गुज़रकर रूपाकार लेता है। समाज में लड़कों को एक तरह से पाला जाता है लड़कियों को दूसरी तरह से। शिशुपन से ही उनके खिलौने, खेलकूद, कपड़े, भोजन और भाषा अलग-अलग करके बोध और भूमिकाएँ निश्चित कर दी जाती हैं। आगे का जीवन इसी ढर्रे पर चलता है। बेटों की सेहत, शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है और बेटियाँ प्राथमिकता में पीछे रखी जाती हैं। जेंडर के निर्माण और सुदृढीकरण में धर्म विशेष भूमिका अदा करता रहा है। ‘पुम्’ नामक नरक से पुत्रवान ही छुटकारा पाता है। पिंडदान करने का अधिकार बेटे को ही दिया गया है। स्वर्ग में धर्मात्मा पुरुषों के सुख भोगने की व्यवस्था की गई है लेकिन स्त्रियाँ स्वर्ग जा भी पाएंगी या नहीं, इस पर चुप्पी है। स्त्री-पुरुष भेदभाव की इस धार्मिक बुनियाद को राज्य, क़ानून और प्रशासनिक व्यवस्था ने बनाए रखा है। शिक्षण संस्थाएँ, ज्ञान के माध्यम, जनसंचार सब पुरुषों के हाथ में हैं। लैंगिक विशेषाधिकार पुरुषों को प्राप्त हैं। पुरुषों द्वारा बनाई संरचना उन्हीं के हितों को ऊपर रखती है।

किताब के दूसरे अध्याय में डॉ. नवले ने महिला आंदोलन के उद्भव के कारणों पर प्रकाश डाला है। यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई। स्त्री और पुरुष दोनों बड़ी संख्या में फैक्टरियों, मिलों में काम पर रखे गए। श्रम दोनों से बराबर कराया जाता था लेकिन मजदूरी में अंतर था। स्त्रियों को बहुत कम मेहनताना दिया जाता था। स्त्री श्रमिकों ने यह भेदभाव झेला। उनमें क्रमशः असंतोष पनपा। वे संगठित होने लगीं। फ़्रांस की राज्य क्रांति (1789-1799) के समूचे आंदोलन में स्त्रियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया था। इस क्रांति की मूल्य-त्रयी – स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व ने उनमें आत्मविश्वास भरा।

मताधिकार आंदोलन ने स्त्री विमर्श को गति दी। असल में स्त्रीवादी आंदोलन की प्रथम लहर का प्रथम सरोकार मताधिकार ही था। अन्य सरोकारों में संपत्ति का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, राजनीति में हिस्सेदारी का अधिकार, नागरिक अधिकार थे। स्त्रियों के लिए शिक्षा के अधिकार की पहली आवाज़ ब्रिटिश लेखिका मैरी वोलस्टोनक्राफ्ट (1759-1797) की थी। उन्होंने अपने 1792 में प्रकाशित अपने बहुचर्चित ग्रंथ ‘अ विंडीकेशन ऑफ़ द राइट्स ऑफ़ वूमन : विद स्ट्रिकचर्स ऑन पॉलिटिकल एंड मोरल सब्जेक्ट्स’ में स्त्री शिक्षा की पुरज़ोर वक़ालत की। जो लोग स्त्रियों को शिक्षित करने के विरोधी थे उन्हें वोलस्टोनक्राफ्ट ने समुचित जवाब दिया। डॉ. रमा नवले ने मैरी वोलस्टोनक्राफ्ट की ताराबाई शिंदे से अच्छी तुलना की है। एक शताब्दी बाद की लेखिका और स्त्री अधिकारों की प्रबल पैरोकार ताराबाई शिंदे (1850-1910) ने अपने ओजस्वी विनिबंध ‘स्त्री–पुरुष तुलना’ (1882) में धर्म और पुरुष वर्चस्व के साँठ-गाँठ की तीखी आलोचना की है। मैरी वोलस्टोनक्राफ्ट के लेखन का असर ‘सेनेका फ़ाल्स कन्वेंशन’ (1848) पर पड़ा। स्त्रीवादी आंदोलन की पहली लहर (वेव) की औपचारिक शुरुआत इसी कन्वेंशन से मानी जाती है। न्यू यॉर्क (अमेरिका) स्थित सेनेका फ़ाल्स पर क़रीब 300 स्त्री-पुरुषों ने स्त्री समानता के लिए रैली की। रॉकस्टार एलिज़ाबेथ केडी स्टेन्टन ने इस कन्वेंशन के घोषणापत्र (डेक्लेरेशन) का प्रारूप तैयार किया। इसमें नए आंदोलन की रूपरेखा, विचारधारा और राजनीतिक योजनाएँ थीं।

स्त्रियों के मताधिकार का आंदोलन शताब्दी भर चला। सबसे पहले सोवियत संघ ने यह अधिकार दिया। सोवियत क्रांति वाले वर्ष, 1917 में ही। पूँजीवादी यूरोपीय देशों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्त्रियों को वोट देने लायक माना। समाजवादी आंदोलन में स्त्रियाँ बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही थीं। वे समान कार्य के लिए समान मजदूरी की माँग कर रही थीं। कपड़ा मिल मज़दूर स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करती हुई साम्यवादी क्लारा ज़ेटकिन और रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने माँग की कि 8 मार्च को पूरी दुनिया में महिला दिवस मनाया जाए। अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने न्यू यॉर्क की गारमेंट वर्कर्स (वस्त्र निर्माता श्रमिकों) की हड़ताल के सम्मान व समर्थन में 1909 में राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। इसके मद्देनज़र इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस ने 1910 में इस दिन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने की सहमति दी। 8 मार्च 1917 को रूस की महिलाओं ने पेत्रोग्राद (सेंट पीटर्सबर्ग) में प्रथम विश्वयुद्ध, भोजन की कमी और ख़राब जीवन-स्थितियों के विरोध में हड़ताल की। लेनिन ने 1922 में घोषणा की कि आठ मार्च ‘महिला दिवस’ के रूप में आधिकारिक तौर पर जाना जाए। आधी शताब्दी बाद जाकर यूनाइटेड नेशन्स (यूएन) ने 1975 में इस दिन को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मान्यता प्रदान की।

पहली लहर की आक्रामक स्त्रियों को मंच पर भाषण देते हुए, प्रदर्शनों में नारा लगाते हुए, जेल जाते हुए देखना पूँजीवादी यूरोप और विक्टोरियाई अमेरिका के लिए किसी धक्के से कम न था। उनके लिए ये ग़ैर-औरताना व्यवहार थे। पहले वेव में जिस रचना ने सर्वाधिक विवाद पैदा किया, वह फ्रेंच नारीवादी दार्शनिक सिमोन द बोउआर की 1949 में प्रकाशित ‘द सेकंड सेक्स’ (फ्रेंच में ‘Le Deuxieme Sexe’) थी। अंग्रेजी में यह शोधग्रंथ 1953 में आया। ‘स्त्री उपेक्षिता’ नाम से हिंदी में इसका भावानुवाद प्रभा खेतान ने किया जो 1992 में छपा। सिमोन का यह कथन आधी शताब्दी तक स्त्रीवाद का आधार वाक्य रहा- ‘औरत पैदा नहीं होती, बनायी जाती है‘ –वन इज़ नॉट बोर्न, बट रैदर बिकम्स, अ वूमन’। फेमिनिस्ट इन्क्वायरी के प्रश्न और मुद्दे यही से निकले। औरतों के दमन-उत्पीड़न के विवेचन के संदर्भ में सिमोन के स्पष्टवादी, दो टूक और धारदार वक्तव्यों ने समाज का चित्त झकझोरा किंतु बदनामी भी पायी। ‘व्हाट इज़ अ वूमन?’ इस सरल से लगते जटिल सवाल के जवाब की तलाश में स्त्रीवाद टूटा, बँटा और अंतर्विरोध ग्रस्त हुआ। इसी का जवाब खोजते हुए वह मजबूत हुआ, विकसित हुआ और आगे बढ़ा। फ़्रांस के स्त्री मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लेने वाली सिमोन पहली और दूसरी लहर के बीच पुल की तरह हैं। उन्होंने अपने जीवन और लेखन- दोनों से ‘कल्ट ऑफ़ डोमिस्टिसिटी’ घरेलूपन की पूजा को चुनौती पेश की। सार्त्र से उनकी मित्रता ने प्रेम, सहजीवन और स्वतंत्रता का एक मानक प्रस्तुत किया। नारीवादी आंदोलन की पहली लहर ने दो विश्वयुद्ध देखे। स्त्रीवादियों ने युद्ध का भरपूर विरोध किया। इन युद्धों से उनके दावे को बल मिला कि अगर शीर्ष सत्ता संरचना और निर्णय प्रक्रिया में स्त्रियों को प्रवेश नहीं मिला तो विश्व में द्वंद्व, अशांति और युद्ध की स्थितियाँ बनती रहेंगी।

नारीवादी आंदोलन की दूसरी लहर (1960-80) में अमेरिका की बेट्टी फ्रीडन (1921-2006) संगठन, विचार और आंदोलन के स्रोत के रूप में रहीं। अमेरिका के मध्यवर्गीय परिवारों की महिलाओं के शांत और संतुष्ट दिखते चेहरों के पीछे छिपी उदासी और शून्यता को फ्रीडेन ने समझा। उनका शोध 1950 के दशक की महिलाओं पर था। फ्रीडेन ने पाया कि बाहर से प्रसन्न नज़र आती ये महिलाएँ कुंठा और मानसिक तनाव में जी रही हैं। वे कुछ करना चाहती हैं लेकिन उन्हें पत्नी और माँ की भूमिका में जकड़ दिया गया है। उनका कोई अपना भविष्य नहीं, कोई दिशा नहीं। उनकी मानसिक रुग्णता पर मेडिकल साइंस मौन है। यह उसके लिए अनजाना इलाक़ा है। फ्रीडेन ने इसे ‘अनाम समस्या’ (‘प्रॉब्लम विद नो नेम’) कहा। उनकी किताब ‘फेमिनिन मिस्टीक’ 1963 में छपी। स्त्रियों के क़ानूनी अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए बेट्टी फ्रीडेन ने 1966 में ‘स्त्रियों के लिए राष्ट्रीय संगठन’ (‘नेशनल आर्गेनाइजेशन फॉर वीमेन’ = NOW) की स्थापना की। संख्या की दृष्टि से अब तक का सबसे बड़ा स्त्रीवादी संगठन माना जाने वाला ‘नाउ’ स्त्रियों की मुक्ति कामना को उभारने में क़ामयाब रहा।

पहली लहर के दौरान कॉमरेड पुरुषों के साथ संघर्ष में उतरने वाली एक्टिविस्ट स्त्रियों ने पाया कि उन्हीं पुरुषों से विवाह के बाद उनकी भूमिका परिवार तक सीमित कर दी गयी है। अब वे बैठकों में शामिल नहीं हो रही हैं, सड़कों पर प्रतिरोध मार्च नहीं निकाल पा रही हैं। उसमें हिस्सा भी नहीं ले पा रही हैं। सार्वजनिक स्थलों, सभाओं में होने वाली जीवंत बहसों से वे बाहर हो गयी हैं। उनकी इस स्थिति के लिए पूँजीवाद उतना ज़िम्मेदार नहीं है जितनी पितृसत्ता। दूसरी लहर में इस पितृसत्ता को समझा और परिभाषित किया गया। इसी समय यह शब्द चलन में आया। पहली लहर की तुलना में यह लहर सैद्धांतिक अधिक रही। नवमार्क्सवाद को मनो-विश्लेषण सिद्धांत से मिलाकर स्त्रीवाद के अनुरूप विचार का नया रसायन तैयार किया गया। इस रसायन ने पूँजीवाद, पितृसत्ता और मानक विषमलैंगिकता (नॉर्मेटिव हेटेरोसेक्सुअलिटी या हेटेरोनॉर्मेटिविटी) की आलोचना की। स्त्रियों को पारंपरिक भूमिका में बाँधे रखने का विरोध उग्र हुआ। प्रथम तरंग में ज़्यादातर मध्यवर्गीय, श्वेत, पश्चिमी, सिसजेंडर महिलाएँ थीं जबकि द्वितीय तरंग में ब्लैक, नॉन-वेस्टर्न, सभी वर्गों की स्त्रियाँ शामिल हुईं। नवमार्क्सवाद से संवाद करते हुए रेडिकल फ़ेमिनिज्म सामने आया। इसने ‘स्त्री संघर्ष वर्ग संघर्ष है’ का नारा दिया। ‘द पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ का नारा भी इसी समय उभरा। इसी दौर में ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ के पक्ष में तर्क गढ़े गये। रेस, क्लास और जेंडर को परस्पर संबद्धता में देखा जाने लगा। सेक्सिज्म की पहचान करायी गयी और पूरे समाज को इससे मुक्त करने की माँग उठी। बच्चों के कार्टून, चित्रकथाओं से लेकर क़ानून की भाषा तक में सेक्सिस्ट बिंदु रेखांकित हुए। उच्च पदों और संस्थाओं में मौज़ूद सेक्सिस्ट व्यवहार का संज्ञान लिया गया। लोगों को इसके प्रति संवेदी बनाने की पहल हुई। यह भी कहा गया कि मिश्रित समूहों में स्त्री के शोषण की आशंका बढ़ जाती है, इसलिए स्त्रियाँ साथ-साथ रहें। उसमें पुरुषों की भागीदारी, घुसपैठ न हो। बेट्टी फ्रीडेन के संगठन ‘नाउ’ में सिर्फ स्त्रियाँ ही सदस्य हो सकती थीं। इसी लहर में स्त्रियों को पर्यावरण हितैषी माना गया। इको-फ़ेमिनिज्म की बुनियाद यही पड़ी।

सौंदर्य प्रतियोगिताओं की तीक्ष्ण आलोचना इस लहर की एक और उल्लेखनीय विशेषता है। यह काम रेडिकल स्त्रीवादियों ने किया। अमेरिका के अटलांटिक सिटी में 1968-9 में दो बार ‘मिस अमेरिका पेजेंट’ का आयोजन हुआ। रेडिकल फ़ेमिनिस्ट समूह ने उसका तीव्र विरोध किया। ऐसी सौंदर्य प्रतियोगिताओं को अपमानजनक माना गया। कहा गया कि ये स्त्रियों का वस्तूकरण करती हैं और उन्हें पशुओं की श्रेणी में धकेलती हैं। उपभोग-योग्य उत्पाद में स्त्रियों को बदल देने वाली पितृसत्ता नहीं चाहती कि स्त्रियाँ आत्मनिर्भर बनें, पुरुषों के बराबर वेतन पाएँ और स्वतंत्रता का अनुभव करें। ‘मिस अमेरिका पेजेंट’ का विरोध करने के लिए न्यू यॉर्क के रेडिकल ग्रुप रेडस्टाकिंग्स ने समांतर सौंदर्य प्रतियोगिता आयोजित की। उन्होंने एक भेड़ को ‘मिस अमेरिका’ का ताज पहनाया और उस पर अपने सौंदर्य प्रसाधन न्योछावर किए।

यह पितृसत्ता के भयभीत होने का समय था। उसका कभी ऐसी स्त्रियों से साबका नहीं पड़ा था। रेडिकल फेमिनिस्ट का मानना था कि गर्भ-धारण करने के कारण स्त्रियाँ गुलाम होती हैं। इससे बचने के लिए उन्होंने टेस्ट ट्यूब बेबी की वक़ालत की। फ्री सेक्स की बात की। घर का काम सिर्फ़ स्त्रियाँ करेंगी, इस रोलबंदी को ख़ारिज किया। स्त्री देह के व्यवसायीकरण और ‘हाइपर सेक्सुअलाइज़ेशन’ को मुद्दा बनाया गया। संतानोत्पत्ति का अधिकार स्त्री के पास होना चाहिए, समलैंगिकों को मान्यता मिलनी चाहिए, उन्हें अधिकार मिलने चाहिए आदि मुद्दे प्रमुखता से उठे। दूसरी लहर में स्त्रीवादी चेतना छोटे-छोटे समूहों द्वारा फ़ैली। इन समूहों में होने वाली बहसों ने स्त्रीवाद को मज़बूती दी, उसे धारदार बनाया। इन सब सक्रियताओं की उपलब्धि रही कि यौन उत्पीड़न के संबंध में क़ानून बने। स्त्रियों को स्कूल, कॉलेज और एथलेटिक्स में प्रवेश मिला। लैंगिक अंतर कम हुए। परिवार, कार्यस्थल (फैक्ट्री, ऑफिस, शिक्षण संस्थानों) में असमानताओं के उन्मूलन पर ध्यान दिया जाने लगा। विधि व्यवस्था को लैंगिक पूर्वग्रहों के प्रति सेंसिटाइज़ करने की प्रक्रिया आरंभ हुई।

तीसरी लहर (1980-2000) का ज़ोर वैयक्तिकता और वैविध्य को अपनाने पर रहा। बाइनरी ‘हम’ और ‘वे’ में सोचने का निषेध करते हुए अनेकार्थता (अम्बिगुइटी) का अभिनंदन किया गया। यह दौर उत्तर औपनिवेशिकता और उत्तरआधुनिकता से संदर्भित माना जाता है। इस लहर में सार्वभौम स्त्रीत्व को प्रश्नांकित किया गया। बॉडी, जेंडर और सेक्सुअलिटी की अवधारणाएँ पुनरीक्षित हुईं। कहा गया कि हमें सुंदर दिखने का अधिकार है। सुंदर दिखना अपने लिए है, न कि अन्यों/पुरुषों के लिए। इस दौर को ‘गर्ली फ़ेमिनिज्म’ कहा जाता है। यह ग्लोबल और बहुसांस्कृतिकता की ओर झुकी हुई लहर है। इसने आइडेंटिटी, जेंडर और सेक्सुअलिटी जैसी श्रेणियों को कृत्रिम माना और इन्हें नकारा। स्त्रीवाद को अपवर्जी मानते हुए कहा गया कि हम फ़ेमिनिस्ट नहीं हैं। भाषा और संबोधन में छिपे मर्दवाद को तोड़ने की चेष्टा इस दौर में दिखाई देती है। इसके लिए ‘स्लट’ और ‘बिच’ जैसे शब्दों का अपने लिए बेहिचक इस्तेमाल किया गया। मर्दवादी जिसे गाली की तरह प्रयोग में लाते हैं, उसे आभरण की तरह व्यवहृत किया जाने लगा। एथनिसिटी, क्लास और यौन-उन्मुखता का उत्सव मनाते हुए इन्हें डायनामिक, सिचुएशनल और अनंतिम माना गया। तीसरे दौर ने बाउंड्रीज़ तोड़ी। यथार्थ को तरल बनाया।

चौथी लहर (2000 से शुरू) कई कारणों से विचारणीय है। डॉ. रमा नवले की किताब में तीन लहरों का ही अध्ययन है। उन्होंने चौथी लहर को मान्यता नहीं दी है। अगर इस लहर को स्वीकार न किया जाए तो स्त्रीवाद के विकास की अद्यतन स्थिति को, बहुत-सी अग्रगामी चीज़ों को समझना कठिन होगा। तीसरी लहर की नेतृत्वकारी महिलाओं ने कहा था कि वे फ़ेमिनिस्ट नहीं हैं और उन्हें अब स्त्रीवाद नहीं चाहिए जबकि चौथी लहर में डंके की चोट पर कहा गया कि हाँ, वे फ़ेमिनिस्ट हैं। उन्हें संगठन चाहिए, मज़बूत सामूहिकता चाहिए और मुकम्मल फ़ेमिनिज्म चाहिए।

रेडिकल फ़ेमिनिज्म की बदौलत स्त्रीवादी अभिव्यक्तियाँ और नारे लोगों की जुबान पर चढ़े। ऐसा माना जाने लगा कि स्त्रीवाद ने बहुत-कुछ हासिल कर लिया है। बेहद सीमित स्तर पर यह बात सच कही जा सकती है। चौथी लहर में हम पाते हैं कि स्त्रियाँ ऊँचे ओहदों पर हैं। विश्वविद्यालयों में जेंडर स्टडीज़ के सेंटर बन गये हैं। संस्थानों में यौन उत्पीड़न की शिकायतों पर ध्यान देने के लिए आंतरिक समितियाँ बनायी जा चुकी हैं। महिला विकास केंद्रों (WDCs) की संस्थावार स्थापना हो गयी है। वे समाज को जेंडर संवेदी बनाने के लिए कार्यक्रम चलाने लगे हैं। सामान्य पाठ्यक्रमों में स्त्री अध्ययन का एक प्रश्नपत्र लगा दिया गया है। स्त्रियों के लिए शौचालय बनने लगे हैं। महिला पुलिसकर्मियों वाले महिला पुलिस थाने स्थापित होने लगे हैं। पीड़ित स्त्रियों की शिकायतों पर कुछ-कुछ कार्यवाही भी होने लगी है। सीमित ही सही परंतु ऐसे उत्साहवर्धक माहौल में स्त्रियाँ विगत में अपने साथ घटे यौन-दुर्व्यवहार, यौन-हिंसा को सार्वजनिक करने लगी हैं। चौथी लहर की यह यादगार परिघटना ‘मी टू’ आंदोलन के रूप में दर्ज है। इसने साबित किया कि स्त्रीवाद एकेडमिया से पब्लिक फोरम पर पहुँचने लगा है। वह पब्लिक डिस्कोर्स में जगह बना रहा है। भारत सहित दुनिया के कई देशों की पार्लियामेंट में स्त्रियों की आबादी के अनुपात में सीट आरक्षित होने की संभावना बनने लगी। समाज का यह जनतंत्रीकरण जिन्हें नागवार गुज़र रहा था, उन्होंने मिलकर यह प्रक्रिया रोकी। पुरुषवाद, कॉर्पोरेट-पूँजीवाद और धर्मतंत्र की नई मिलीभगत (नियो-नेक्सस) का परिणाम हुआ कि परिवर्तनचक्र न केवल थमा बल्कि उल्टा घूमने लगा। कहाँ ‘मी टू’ के तहत अतीत में घटी उत्पीड़न की घटनाएँ बताई जा रही थीं और उनका जनता, शासन-प्रशासन द्वारा संज्ञान लिया जा रहा था, कार्रवाईयाँ की जा रही थीं, कहाँ प्रत्यक्ष घट रहे यौन अपराधों को दर्ज किया जाना, उन पर एक्शन लेना बंद-सा हो गया। दक्षिणपंथी सरकारें ही यौन-अपराधियों की संरक्षक बन गयीं। शिक्षण संस्थानों में स्थापित स्त्री अध्ययन केंद्र निष्क्रिय-निस्तेज कर दिये गये। काग़ज़ी खानापूर्ति के लिए ऐसे केंद्रों में अतीत का गौरवगान किया जाने लगा। पितृसत्ता के पिंजड़े को तोड़ने का हौसला रखने वाली एक्टिविस्ट स्त्रियों पर भाँति-भाँति के आरोप लगाकर उन्हें जेलों में डाला जाने लगा, मुक़दमों में फंसाया जाने लगा। आशंकाओं से घिरे स्त्री संगठन अपनी गतिविधियाँ समेटने लगे। स्त्रीवाद के विकास का एक मार्ग दलित स्त्रीवाद के रूप में खुला था। अमेरिका के ब्लैक फ़ेमिनिज्म के तेवर, तैयारी और तीक्ष्णता से उसे आगे जाना था लेकिन वह वक़्त के बहुत पहले शिथिल हो गया। बिखरा-बिखरा तो वह शुरू से था। रजनी तिलक इसे संगठित करने में जुटी थीं लेकिन उनके असामयिक निधन ने वह जगह ख़ाली कर दी। वैसी संगठनकर्ता कोई दूर-दूर तक नहीं दिखायी देती। अगर उनके समतुल्य कोई एक्टिविस्ट-इंटेलेक्चुअल होती तो हाथरस में एक स्वयंभू ईश्वर के सत्संग में चरण-रज पाने के लिए मची भगदड़ में सौ से अधिक दलित महिलाओं की मौत पर पसरी खामोशी अवश्य टूटती।

भारत में आधुनिक स्त्री चिंतन की बुनियाद नवजागरण के समय पड़ती है। रमा नवले जी ने इस दौर की अपेक्षित पड़ताल की है, साथ ही उन लेखिकाओं के रचना-जगत की भी मीमांसा की है जो अपनी स्त्री-पहचान को लेकर सजग हैं और समानता के प्रश्न पर जिनके सरोकार व्यापक हैं। डॉ. नवले की लेखन-शैली ठहराव लिये हुए, ऋजुमार्गी/ सरल रेखीय और अनुत्तेजक है। यह किसी एक्टिविस्ट की नहीं, आंदोलनों को जिज्ञासा से, किंतु एक दूरी रखकर देखने वाली प्राध्यापिका की किताब है। उनकी दृष्टि आलोचनात्मक है। भाषा साफ़-सुथरी है। प्रस्तुति में उलझाव नहीं है। तथ्य और संदर्भ मानक हैं।

स्त्री विमर्श और आंदोलन की उत्तरगाथा- समकालीन वैश्विक और भारतीय राजनीति का परिप्रेक्ष्य डॉ. रमा नवले के प्रोजेक्ट में नहीं है; लेकिन जो है वह कम नहीं है। स्त्रीवाद की अवधारणा और स्वरूप पर एक अच्छी पाठ्यपुस्तक तैयार करने के अपने संकल्प में वे सफल ही कही जायेंगी। हिंदीभाषियों को मराठीभाषी, नांदेड़ निवासी डॉ. रमा नवले के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।

bajrangbihari@gmail.com

(‘जनसंदेश टाइम्स’ से साभार)

 


13 thoughts on “समता की ओर समाज : स्त्री अध्ययन का वर्तमान / बजरंग बिहारी तिवारी”

  1. आदरणीय बजरंग बिहारी जी
    नमस्ते
    आपने जिस तरह हिंदी भाषियों की ओर से मराठी भाषी लेखकों का न केवल स्वागत किया है, बल्कि उनके प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित की है, इसके लिए शतशः आभार
    धन्यवाद

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  2. जॉब में था तो एक ऑल वीमेन पोलिंग स्टेशन भी बनाया।

    सो क्यों मंदा आख़िइए जित जमे राजान
    ( उस औरत को छोटा क्यों कहें, जिस नें राजाओं को जन्म दिआ )…

    ये गुरु नानक जी की बानी श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में दर्ज है। बानी को सभी पढ़ते हैं… परन्तु उस पर खरा नहीं उतरते।
    अमेरिका में औरतों को प्रेजिडेंट नहीं बनने दिआ।
    किताब का रिव्यु पढ़ कर किताब पढ़ने की तिब्र इच्छा हुई।
    आप दोनों को मुबारक़ 🙏

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  3. सर बहुत अच्छा लेख है इससे हम सभी लोग जरूर लाभान्वित होंगे पढ़ने पे ।

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  4. प्राेफेसर रमा नवले मॅडम की किताब ‘स्त्री विमर्श अवधारणा और स्वरूप’ पर हिंदी के वरिष्ठ आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी जी की विस्तृत और विचारोत्तेजक समीक्षा निश्चित ही किताब को संपूर्णता से समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
    बजरंग बिहारी तिवारी जी ने इस साल स्त्री विमर्श पर केंद्रित पढी हुई तीन महत्वपूर्ण किताबाें में प्रस्तुत किताब काे स्थान दिया है यह बहुत महत्त्वपूर्ण है।
    लेखिका रमा नवले मैम का अभिनंदन 🌷🌷🌺🌺

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  5. समीक्षा ठीक है । पश्चिमी नारीवाद (अमरीका समेत) पर पर्याप्त चर्चा सुनाई पड़ती है। भारतीय स्त्रीवादी आंदोलन के ऊपर भी बात की जाती है लेकिन अफ्रीकी, लैटिन अमेरिकी देशों के महिला आंदोलनों पर कभी कुछ कहा नहीं जाता ।
    क्या इन देशों की महिलाएँ अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं हैं ?

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  6. बहुत ही शानदार समीक्षा बजरंग बिहारी तिवारी जी द्वारा, उन्हें और रमा जी को बधाई।।

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  7. आपने अध्याय के अनुसर्ववर्गीकृत करके बहुत अच्छी तरह लेखिका के सोच एवं विश्लेषण को प्रस्तुत किया है। समीक्षा बेताज उत्सुकता जगाती है कि किताब को पढ़ा जाये… साधुवाद ऐसे साढ़े हुए विवेचन एवं प्रस्तुति के लिए…

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  8. एक लंबे अंतराल के बाद आपको पढ़ रहे हैं बजरंग जी !दो-तीन दिन से हमारे दिमाग में यह बात थी कि हम आपसे कहें कि बहुत दिन हो गए आपको पढ़ा नहीं।
    अच्छी टेलीपैथी रही यह बहुत अच्छी समीक्षा की है आपने। बहुत बारीकी से क्रमबद्धता के अनुसार आपने समझाया।
    नारी पर इतना विस्तार से हमने पहले कभी नहीं पढ़ा ।सारी दुनिया में स्त्रियों को लेकर एक सी ही स्थिति है। आपकी जो समीक्षा हमने पढ़ी,उसमें कई विषयों पर हम सहमत हैं।
    यह एक कठिन विषय था समीक्षा की दृष्टि से। लेकिन आपने न्याय संगत तरीके से लिखा है।
    इस पुस्तक के लिए रमा जी को बहुत-बहुत बधाइयाँ! और आपको भी समीक्षा के लिए बहुत-बहुत बधाई।

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  9. एक बात और जो हमें प्रथम दृष्ट्या महत्वपूर्ण लगती है वह यह कि कोई भी ,कितनी भी किताबें लिख लें, कितने भी आंदोलन कर लें, कितने भी नियम और कानून बना दिए जाएँ, व्यावसायिक स्तर पर भले ही इसमें परिवर्तन हो जाये कि तनख्वाह एक जैसी मिलने लगे; उसके बावजूद भी इसमें कितना सुधार आ पाएगा इसकी कोई गैरेंटी नहीं है ।बजरंग जी ! एकमात्र शिक्षा ही जागरूकता ला सकती है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि स्त्री और पुरुष दोनों ही संबंधों की संवेदनाओं को समझें। पति-पत्नी एक दूसरे की कद्र करें।
    संस्कार और मर्यादाओं का भी बहुत महत्व है जिसे आजकल के बच्चे, चाहे वे मेल हों या फीमेल, समझना ही नहीं चाहते। स्वतंत्रता को स्वच्छंदता समझते हैं। युवा वर्ग को संभालना बहुत जरूरी है। आधुनिकता, पैसा और बाजार! सब कुछ इन तीन के इर्द-गिर्द घूमता है।
    और शिक्षा ,जिसमें अपन सुधार और परिवर्तन की संभावनाएँ मानते व तलाशते हैं तो आजकल वह प्रोफेशनल हो गई है! पहले शिक्षा जीवन जीने की प्रेरणा देती थी और आज कमाई के तरीके बताती है। सोचने और करने की। या कहें विचार और कर्म ,दोनों की ही दिशा और दशा दोनों बदल गई है।

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