नयी दृष्टि के आलोक में ‘हिंदुस्तानी सिनेमा और संगीत’ / अश्विनी सिंह


‘लेखक सिनेमा को सिर्फ़ मनोरंजन का ज़रिया नहीं बल्कि उसे अपने समय और समाज का बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज़ समझते हैं और उसी तरह से उसका विश्लेषण भी करते हैं।’–अशरफ़ अज़ीज़ की बेमिसाल किताब ‘हिन्दुस्तानी सिनेमा और संगीत’ पर फ़िल्म-संपादक अश्विनी सिंह की समीक्षा : 

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सिनेमा एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है और हिंदुस्तानी सिनेमा अलग-अलग सांस्कृतिक रंग, भाषा, उनके रहन-सहन और उनकी व्यावहारिकता का एक बड़ा समूह, जो अपनी तमाम विविधताओं के बाद भी बिना किसी अवरोध के अपने शिखर पर है। हिंदुस्तानी सिनेमा किसी एक भाषा का पर्याय नहीं बल्कि उस सांस्कृतिक अवधारणा से इसका संबंध है, जिसका उद्देश्य बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे में इस तरह से घुलमिल जाना है कि देखने-समझने वाले को इसका भान ना हो कि वह किस भाषा में, किस समाज के जीवन को पर्दे पर देख रहा है। हिंदुस्तानी सिनेमा की सबसे बड़ी पहचान है इसका गीत-संगीत। हिंदुस्तानी सिनेमा अपने गीतों और इसके संगीत के बिना अधूरा है। यह लेख जो आप पढ़ना शुरू कर चुके हैं, इसी विषय पर एक बहुत ही ज़रूरी किताब हिंदुस्तानी सिनेमा और संगीत के बारे में है, जिसे मैंने हाल-फिलहाल में पढ़कर पूरा किया है, और इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि गीत-संगीत और खासतौर पर हिंदुस्तानी संगीत सुनने वालों को इसे ज़रूर-ज़रूर पढ़ना चाहिए। मुझे यह किताब देरी से पढ़ने का अफ़सोस ज़रूर रहा, पर पढ़ने के बाद वाली संतुष्टि उस अफ़सोस को थोड़ा हल्का कर गयी। और इसे पढ़ने के बाद मैं, हमारे सिनेमाई इतिहास में रचे बहुत से गीतों के साथ पुनः एक नयी दृष्टि के साथ जुड़ पाया। कुछ गीतों के और गहरे अर्थ मिले, तो उनकी संवदेना और उनमें निहित उनके असल भाव को जान पाया। गीतकारों की लेखनी और उनकी मनोदशा को और क़रीब से समझने का अवसर मिला। गीतों के अतिरिक्त सिनेमा और उनकी कथा के भी भाव समझने को मिले, कलाकारों से मिलना हुआ। फ़िल्म आवारा और राज कपूर के बीच का सम्बन्ध, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे, देवदास, अशोक कुमार और शैलेन्द्र को बहुत क़रीब से समझने का मौक़ा मिला।

शुरुआत में सम्भव है कि यह किताब आपको धीमी लगे, पर इसकी ख़ासियत यही है कि इसे आप बिना किसी जल्दबाज़ी के बहुत ही धैर्य के साथ पढ़ें, क्योंकि इसे पढ़ते समय आप एक अलग दुनिया में चले जाएंगे। अभी जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, मेरे कानों में वे गीत और उनमें अंतर्निहित समाज दिखायी और सुनायी दे रहे हैं और उन गीतों को अब सुनकर उनका नया भाव मुझे और भी आनंदित कर रहा है।

निजी तौर पर मेरे लिए सिनेमा और उसमें इस्तेमाल किया गया संगीत, दोनों एक दूसरे के पूरक ही हैं। सिनेमा में कथा हमें चरित्रों से जोड़ती है तो उसके गीत और संगीत उन चरित्रों की मनोदशा और उनके भाव से। यही कारण है कि जब हम सिनेमा देखते हैं तो उन गीतों का भाव अलग होता है और जब हम उन गीतों को स्वतंत्र रूप से सुनते हैं तो उन गीतों का भाव हमें हमारे निजी सुख दुख और जीवन से जोड़ देता है। इसीलिए सिनेमा में रचा गीत-संगीत, सिनेमा से लंबी आयु रखता है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो गीत-संगीत में अमरता को पाने के सभी गुण हैं। जैसा कि इस किताब की शुरुआत के कुछ पन्नों में लेखक अशरफ़ अज़ीज़ गीतों पर बात करते हुए कहते हैं, दुनिया के ऐसे कई हिस्से जहां भारतीय मूल के लोग जा बसे थे या विभाजन के बाद देश से गये लोगों को इन्हीं गीत-संगीत ने एकजुट किया और अपनी विरासत से भी जोड़े रखा। लेखक इस किताब के शुरुआत में ही एक बात बहुत स्पष्ट रूप से कह देते है कि यहाँ जो भी बात हो रही है, वह हिंदुस्तानी (हिन्दी/ उर्दू) सिनेमा और संगीत से संबद्ध हैं, जिसकी शुरुआत 1931 में ‘आलम आरा’ से हुई जो हिंदुस्तानी भाषा में थी। इस फ़िल्म के साथ ही हिंदुस्तानी सिनेमा में आवाज़ की क्रांति आयी जिसने प्रमुखता से गीत और संगीत को खुद में इस तरह बसाया कि वो हमारे सिनेमा का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया। इस नये प्रयोग के आने के बाद मनोरंजक फ़िल्मों का भी दौर शुरू हुआ जो पूरी तरह से व्यावसायिक था, जबकि दूसरी तरफ़ एक नयी खेप भी आयी जो पश्चिम के नवयथार्थवादी सिनेमा से प्रभावित रही। इसके बाद एक और दौर आया जब इन दोनों से इतर नया सिनेमा या समानांतर सिनेमा अस्तित्व में आया जिसमें गीत तक़रीबन ना के बराबर ही होते थे। यह सब एक साथ इसी देश में घट रहा था जहां एक तरफ़ व्यावसायिक सिनेमा गीत-संगीत से लबरेज था, तो दूसरी ओर समानांतर सिनेमा के लोग उसे बहुत अधिक पसंद नहीं करते थे। इस एक प्रसंग पर आकर यह किताब अपने मूल विषय पर आती है, जहां लेखक सिनेमा को सिर्फ़ मनोरंजन का ज़रिया नहीं बल्कि उसे अपने समय और समाज का बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज़ समझते हैं और उसी तरह से उसका विश्लेषण भी करते हैं। यही कारण है कि हिंदुस्तानी सिनेमा, गीत-संगीत के बहाने लेखक अपने विश्लेषण में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष को बहुत ही स्पष्ट शब्दों में उभार कर सामने रखते हैं।

उदाहरण के लिए, इसी किताब में वर्णित है कि हिंदुस्तानी सिनेमा और ख़ास तौर पर हिंदुस्तानी गीत-संगीत किस तरह से दक्षिण एशियाई लोगों को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने की सबसे बड़ी ताक़त बना। इसी किताब में एक जगह राजनीतिक परिदृश्य में एक और बात लेखक स्पष्ट शब्दों में कहते हैं जो बहुत हद तक वर्तमान में भी सही मानी जा सकती है कि  ‘अगर भारत अब भी हिन्दू राष्ट्र नहीं बन सका है या उसे बनने से कुछ हद तक बचा है तो वह है हिंदुस्तानी सिनेमा, जो आज भी इतने सारे धर्मों और उनकी संस्कृति और गीतों को खुद में बसाकर किसी एक की तरफ़ का न होकर सबका बना हुआ है’। यही ताक़त है हिंदुस्तानी सिनेमा और उसके संगीत की, जिसे इस किताब के हर एक खंड में और उसके प्रत्येक अध्याय में तथ्यातमक रूप से विश्लेषित किया गया है।

हिंदुस्तानी सिनेमा और संगीत की शुरुआत 1931 में अविभाजित भारत से हुई थी, जो 1947 में विभाजन के रास्ते दो हिस्सों में बंट गया। इस विभाजन के बाद इस हिंदुस्तानी सिनेमा की प्रमुख आवाज़ें नूरजहां, खुर्शीद बेगम पाकिस्तान जा बसीं, और इधर भारत में बची आवाज़ों में कुछ को सन्नाटे ने समेट लिया जिनमें सुरैया, शमशाद बेगम जैसी गायिका अपने छोर पर टिकी तो ज़रूर रहीं, पर विभाजन के बाद आये इस खालीपन को पुरुषों ने अपने क़ब्ज़े में करने की हर भरसक कोशिश की, ताकि स्त्रियों को वापस रसोईघर में बिठाया जा सके। इसी दौर में एक नयी गायिका भी अस्तित्व में आयी जो बरसों बाद इसी देश में स्वरकोकिला ‘भारत रत्न लता मंगेशकर’ कहलायी। इसी किताब में लेखक अशरफ़ अज़ीज़ यह कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं करते कि लता की आवाज़ में उन्मादकता का अभाव था। उनकी इस टिप्पणी में भी वे उनकी आवाज़ के जादू का ज़िक्र करना नहीं भूलते। वे कहते हैं कि लता की आवाज़ निर्मल और आत्मा को जगाने की ताक़त रखती है, लेकिन उनमें पुरुषों को आकर्षित करने का भाव नहीं है। यही कारण रहा कि शमशाद बेगम, आशा भोंसले जिनकी आवाज़ काम्यतापूर्ण और उन्मादकता से भरी थी, उन्हें अधिकतर मुजरे और कैबरे के गीतों के लिए इस्तेमाल किया गया।

अशरफ़ अज़ीज़ यहां व्यक्तिगत प्राथमिकताओं से इतर, इस किताब के पहले अध्याय में ही ‘हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीतों में स्त्री गायकी’ के बहाने उन पितृसत्तात्मक संबंधों का विश्लेषण करते हैं जो एक प्रकार की आवाज़ को मुखर, मर्दाना और अपने अस्तित्व और वर्चस्व के लिए ख़तरा मान सकता है जबकि दूसरे प्रकार की आवाज़ को, जो स्त्री की ही है, कमज़ोर मानता है। लेखक अशरफ़ अज़ीज़ का यह विचार भी इसमें स्पष्ट होता है कि किसी भी आवाज़ का चुनाव एक विशिष्ट विचारधारा को पूरा करने के लिए एक राजनीतिक उपकरण है। जिन परिस्थितियों में ये विकल्प चुने गये, वे बहुत अलग भी हो सकते हैं। इस कड़ी में आगे का विश्लेषण और भी रुचिकर हो जाता है। विभाजन के बाद कलाकारों की स्थिति दोनों ही तरफ़ तक़रीबन समान ही थी, पर पाकिस्तान जाने के बाद सबसे अधिक नुकसान अगर किसी का हुआ तो वह थी नूरजहां, जो वहां जाने के बाद बहुत अधिक प्रभावी न हो सकीं, जिस कदर वे अविभाजित हिंदुस्तान मे थीं। इस किताब का एक पूरा अध्याय  नूरजहां पर है जिन्होंने  30 से 40 के दशक में पार्श्व गायन पर राज किया था। यह पूरा अध्याय उस दशक की परिस्थितियों के बारे में बहुत ही दिलचस्प और ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, जिनकी वजह से इस मशहूर गायिका का उभार हुआ और अंततः वह हिंदुस्तान से पाकिस्तान चली गयीं। अशरफ़ अज़ीज़ शुरू से लेकर अंत तक अपने सभी आलोचनात्मक विश्लेषण में गायक की गायन क्षमता के अलावा उनकी वाक्यांश क्षमताओं, गीत की व्याख्या, शब्दों/ गीत के अर्थ के भावनात्मकता पक्ष पर भी लिखते हैं। साथ ही, वे सिनेमा के अन्य पक्षों और उनकी तकनीकों का बहुत गहराई से विश्लेषित करते हैं।

हम भारतीयों के लिए सिनेमा और संगीत अलग नहीं है। हमारे लिए वह सिनेमा जिसमें संगीत न हो, गीत न हो, वह सिनेमा नहीं है। यह बात इसलिए भी इतनी मज़बूती से कही जा सकती है कि दुनिया में हमारी पहचान हमारे इसी सिनेमा और सिनेमाई गीत-संगीत की वजह से है। कहना बहुत उपयुक्त शायद न हो फिर भी कहना पड़ेगा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें जो भी सिनेमाई ख्याति और अवॉर्ड (ऑस्कर) मिला है, उसमें गीत-संगीत सबसे ऊपर की श्रेणी पर हैं। हिंदुस्तानी संगीत की ज़बरदस्त ख्याति का एक और उदाहरण इसी किताब में दिया गया है– राज कपूर द्वारा अभिनीत आवारा (1951) का मुकेश द्वारा गाया गीत ‘आवारा हूं’, जिसे शैलेन्द्र ने लिखा था। यह गीत भारत और उसके बाहर, चीन, सोवियत संघ, मध्य पूर्व में विभिन्न वर्गों और पृष्ठभूमि के दर्शकों के दिलो-दिमाग़ पर आज भी वही असर रखता है जो इसके रिलीज़ के समय पर था। लेखक यह भी बताते हैं कि इस गीत ने पूर्वी अफ़्रीका और खाड़ी में बड़े पैमाने पर लोगों के बीच स्वीकार्यता हासिल कर सभी जातीय और नस्लीय सीमाओं को भी तोड़ दिया था।

हिंदुस्तानी सिनेमा की एक बेहद ज़रूरी फ़िल्म बैजू बावरा (1952) गीत और संगीत की दृष्टि से हमेशा हमारी विषय सूची में सर्वप्रथम बनी रहेगी। इस किताब का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय ‘बैजू बावरा : संगीतात्मक प्रतिक्रिया या क्रांति?’ है।  यह पूरा अध्याय बैजू बावरा के संगीत पर केंद्रित है और बहुत ही विस्तृत रूप से इस फ़िल्म में इस्तेमाल किये गये संगीत की शैली और उसके प्रयोग पर बात करता है कि किस तरह से इस फ़िल्म का संगीत वास्तविक शास्त्रीय संगीत की परंपरा को नया रूपाकार देता है और उसके बावजूद जनता के बीच वह बेहद प्रचलित और सफल हुआ। इसे शायद इस तरह से कहना ज़्यादा न्यायोचित होगा कि इस फ़िल्म के ज़रिये शास्त्रीय संगीत के अर्थ को फिर से परिभाषित करने और उसमें नये-नये प्रयोग करने के लिए भविष्य के रास्ते खोल दिये गये। इसकी सफलता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बैजू बावरा के अधिकतर गाने अर्ध-शास्त्रीय या लोक आधारित होने के बावजूद एक स्वतंत्र फ़िल्म के गाने के रूप में तथा शास्त्रीय प्रसंग के रूप में भी याद किये जाते हैं। यह अध्याय बैजू बावरा के बहाने राजनीतिक, वर्ग और जाति समीकरणों का भी वर्णन करता है जो न केवल कहानी के किरदारों को स्क्रीन पर आकार देते हैं, बल्कि प्रत्येक गीत के लिए राग, धुन, गीत और गायकों की पसंद में भी प्रकट होते हैं।

इसी किताब में एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय महान गीतकार शैलेंद्र पर केंद्रित है जिसका शीर्षक है ‘शैलेन्द्र : आत्महत्या की गीतात्मक रूमानियत’। मेरी अपनी समझ से यह अध्याय इस पूरी किताब में विशेष स्थान रखता है। शैलेन्द्र को चाहने वालों के लिए तो यह अध्याय उनके जीवन, उनकी लेखनी और उनके गीतों के सहारे, जीवन दर्शन के भाव से भी जोड़ने वाला है। यह अध्याय संभवतः इस किताब में शामिल सर्वश्रेष्ठ अध्यायों में से एक है। लेखक अशरफ़ अज़ीज़ ने इस अध्याय में सिलसिलेवार ढंग से शैलेन्द्र के व्यक्तिव और उनके लिखे गीतों में व्यक्त भाव, उसकी चेतना और मनोवैज्ञानिक संरचना को उजागर करने का एक बहुत ही ईमानदार प्रयास किया है।  यह लगभग दो दशकों के फिल्मी गीतों तक फैला हुआ है। इसी अध्याय में अशरफ़ अज़ीज़ अपने पाठकों को सफलतापूर्वक यह आश्वस्त भी कराते चलते हैं कि शैलेन्द्र की मानसिक स्थिति लंबे समय से मदद की माँग कर रही थी। इसे पढ़ते समय ऐसा भी लगता है कि शैलेन्द्र को अपनी इस स्थिति का भान था, जिसे वे अपने शब्दों के रास्ते कहने का प्रयास लगातार कर रहे थे। उनके गीतों में यह भाव बहुत मुखर होकर आया है।

देर ना करना, कहीं ये आस टूट जाए, साथ छूट जाए,

तुम ना आओ दिल की लगी मुझको भी जलाए, खाक में मिलाए,

आखिरी लफ्ज़ों में पुकारे यूं मेरा ग़म,

मिल ना सके हाय, मिल ना सके हम    (बरसात)

 

काठ का टुकड़ा बह जाता है,

लोहा डूब के रह जाता है,           (आवारा)

 

डूब गया दिन, शाम हो गई,

जैसे उम्र तमाम हो गई,

मेरी मौत खड़ी है देखो,

अपना घूँघट खोल रे,

प्रीत कैसी? बोल री दुनिया…        (दाग़)

 

गीत हमारे प्यार की दोहराएंगी जवानियां,

मैं ना रहूँगी, तुम ना रहोगे,

फिर भी रहेंगी निशानियां           (श्री 420)

 

आज फिर जीने की तमन्ना है,

आज फिर मरने का इरादा है        (गाइड)

शैलेन्द्र ने लगभग दो दशक तक फ़िल्मों के गीत लिखे, पर उनके इस दुनिया से विदा लेने के बाद उनके उन्हीं गीतों में उनके भाव को देखना-समझना बहुत हद तक हमें झकझोरता है। अपनी इतनी संवेदना और अभिव्यक्ति को शब्दों के सहारे खुद से लगातार बाहर करते हुए भी अंततः वे अपने अस्तित्व के साथ सामंजस्य नहीं बना सके, और गीत गीतकार के लिए एक व्यक्तिगत और राजनीतिक अभिव्यक्ति का माध्यम ही बनकर रह गये। यह पूरा अध्याय शैलेन्द्र का एक गीतकार और संगीतकार, निर्देशकों और निर्माताओं के बीच उनके मौजूद संबंधों के बारे में भी एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। इसी कड़ी में और स्वतंत्र रूप से भी एक सवाल मन में उपजता है कि ‘क्या एक गीतकार केवल वही लिखता है जो एक गीत की स्थिति की मांग है और यह व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है?’ इसे समझने के लिए आपको किताब में आगे के अध्याय की ओर बढ़ना जरूरी होगा कि ‘क्या फ़िल्मी गीत कभी समाज पर एक राजनीतिक टिप्पणी भी थे?’ और ‘क्या फ़िल्मी गीत समाज में होने वाले बदलावों का भी अनुसरण करते हैं?’ या ‘क्या वे केवल फ़िल्म के विशिष्ट हितों के साथ ही संरेखित होते हैं?’

यह किताब अपने हर अध्याय के साथ बहुत सारे सवाल, जिज्ञासाएं उत्पन्न करती है। हर एक अध्याय पर एक स्वतंत्र लेख लिखा जा सकता है। मेरे लिए भी यह एक बेहद कठिन काम था कि इतने बड़े दस्तावेज़ पर मैं कुछ लिख सकूं। फ़िलहाल तो मैं सिर्फ़ कुछ एक अध्याय पर ही लिख सका, और कोशिश की कि आपको इतना संदर्भ ज़रूर दे सकूं कि यह किताब किस तरह से हम सबके लिए पढ़ी जाने योग्य है। यह किताब इस तरह भी एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है कि इसके हर एक अध्याय में शोध करने के लिए पर्याप्त सामग्री है यदि कोई करना चाहे तो। मेरे लिए तो यह किताब हर लिहाज़ से फ़िल्म से जुड़े और हिंदुस्तानी गीत और संगीत को जानने और चाहने वालों के लिए बहुत ज़रूरी दस्तावेज़ लगता है, जो हम सभी के पास होना चाहिए और इसे ज़रूर से ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।

जवरीमल्ल पारख द्वारा अनुवादित और संपादित हिंदुस्तानी सिनेमा और संगीत मूल रूप से अशरफ़ अज़ीज़ द्वारा लिखित लाइट ऑफ द यूनिवर्स  का हिन्दी अनुवाद है। इसमें उस किताब से लिये गये लेखों के अलावा भी कई अन्य लेख हैं जो सिर्फ़ इसी का हिस्सा हैं। असल में यह किताब हिंदुस्तानी सिनेमा और उसके संगीत के प्रति मेरी बहुत-सी धारणाओं को तोड़ती है, और खुद की समझ को एक बार फिर से टटोलने पर मजबूर करती है।

इस किताब को पढ़ने में मुझे एक लंबा समय लगा। कारण यह था कि हर बार जब भी मैं किसी खंड के किसी अध्याय की ओर बढ़ता और पढ़ते-पढ़ते उन गीतों को समझने की कोशिश करता, और साथ ही उनके पार्श्व में सिनेमा की तकनीक को पढ़ता, तो कई बार समझना मुश्किल रहा कि इन गीतों और फ़िल्म को इस नज़रिये से देखना भी कितना रोमांचक और मज़ेदार है। पेज दर पेज, हर एक अध्याय के साथ मेरी समझ पहले से कई गुना बढ़ी ही है, और अंततः कम से कम मैं अपनी समझ से यह कह सकता हूं कि इस किताब ने हिंदुस्तानी सिनेमा और संगीत की दुनिया के संबंध में एक नयी अंतर्दृष्टि की ओर मुझे बढ़ाने में पूरी ईमानदारी से कोशिश की है।

किताब में तीन खंडों के साथ कुल 17 अध्याय हैं। पहला खंड ‘हिंदुस्तानी सिनेमा के गीत, संगीत और गायकी’, दूसरा खंड ‘हिंदुस्तानी सिनेमा में कला और कलाकार’ और तीसरा खंड ‘फ़िल्म संगीत और उसकी यादों के झरोखे से’ है। ये सभी खंड और इनके अध्याय आपको पढ़ते समय पेज दर पेज, शब्द दर शब्द अंदर से कुछ-कुछ बदलते जाएंगे। मेरे लिए इस पूरी किताब से अगर कुछ सहेजना हो तो वह पहले खंड का आख़िरी अध्याय होगा जो ‘कविराज शैलेन्द्र’ पर केंद्रित है। इस लेख को पढ़ते-पढ़ते मैं शैलेन्द्र से, जो मेरे जन्म के पहले इस दुनिया से चले गये थे, इस किताब के माध्यम से मिल पाया। उनके लिखे गीतों का मैं सही मायने में शायद कुछ-कुछ अर्थ समझ भी सका। एक और बात शैलेन्द्र से जुड़े उनके सभी प्रशंसकों के लिए, कि उनके लिए इसे पढ़ा जाना उतना ही ज़रूरी है जितना कि उनके गीतों को लगातार सुनना। जिस तरह से उनके गीत हमको प्रभावित करते हैं, उसी तरह शैलेन्द्र पर यह पूरा अध्याय हमें उनके लिखे गीतों, उनकी अभिव्यक्ति पर हमें एक नयी समझ और एक नयी दृष्टि देता है।

हम तुझसे मुहब्बत करके सनम…

ये दिल जो जला इक आग लगी

आंसू जो बहे बरसात हुई

बादल की तरह आवारा थे हम…      (आवारा)

‘आवारा’ इस गीत में शैलेन्द्र राजकपूर की तीन फ़िल्मों को याद करते हैं। क्या ये महज संयोग होगा? शायद नहीं। यह एक गीतकार का अपने दोस्त के प्रति स्नेह का भाव है। सवाल अब भी वही है, ‘क्या एक गीतकार केवल वही लिखता है जो एक गीत की स्थिति की मांग है और यह व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है?’

आख़िर में बहुत ज़रूरी बात, जिसका हम अक्सर उल्लेख़ करना भूल जाते हैं। आभार और धन्यवाद। सबसे पहले तो अशरफ़ अज़ीज़ साहब को धन्यवाद और आभार, जिन्होंने ‘हिंदुस्तानी सिनेमा और उसके संगीत’ पर इतना महत्वपूर्ण और विश्लेषणात्मक काम किया। उसके बाद हम सबके आदरणीय और प्रिय जवरीमल्ल पारख जी को बहुत सारा स्नेह और बहुत-बहुत धन्यवाद कि उन्होंने इसका अनुवाद कर मूल विचार के साथ हम तक पहुंचाया। यह किताब एक अनूदित संस्करण ज़रूर है, पर इसे पढ़ते हुए तनिक भी यह भान नहीं होता कि यह मूल से भिन्न होगी। मुझे लगता है कि इसका एक मुख्य कारण यह भी होगा कि यह पूरा विषय जवरीमल्ल पारख जी के मन के भी उतना ही क़रीब है जितना कि अशरफ़ अज़ीज़ के मन के। यही वजह है कि इसे पढ़ते हुए आप शब्द जवरीमल्ल जी के पढ़ते हैं तो उसकी आत्मा से जुड़ने के लिए अशरफ़ अज़ीज़ जी का अनुभव हमें प्रभावित करता है। मैं स्वयं इतना बड़ा नहीं हूं कि इन दोनों विभूतियों को कोई संज्ञा दूं, पर फिर भी इन दोनों से ही माफ़ी के साथ यह ज़रूर कहूंगा कि यह किताब पढ़ते वक़्त जवरीमल्ल जी और अशरफ़ अज़ीज़ जी शरीर और आत्मा की तरह एक बिम्ब बने जिससे होकर यह किताब हम तक पहुंची है।

यह किताब उन सभी लोगों के लिए बहुत उपयोगी और ज़रूरी है जो हिंदी फिल्म संगीत के ऐतिहासिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझने में रुचि रखते हैं। एक और ज़रूरी बात जो मुझसे किसी ने कही थी, वह आपसे दोहरा रहा हूँ कि इसे पढ़ते वक्त उन गीतों को पार्श्व में बजने दें। उसके बाद इस किताब को पढ़ने का आनंद दोगुना हो जायेगा।

[पुस्तक : हिन्दुस्तानी सिनेमा और संगीत, लेखक : अशरफ़ अज़ीज़, अनुवाद और संपादन : जवरीमल्ल पारख, प्रकाशक : ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली-110092]

अश्विनी सिंह फिल्म संपादन से जुड़े हैं 

ashwani.asingh@gmail.com

 


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