दलित कविता में सौन्दर्यबोध और सौन्दर्यशास्त्र / जगदीश पंकज


चंचल चौहान की किताब साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र पर जनवादी लेखक संघ और दलित लेखक संघ के संयुक्त तत्त्वावधान में इसी महीने की 8 तारीख को दिल्ली के कनाट प्लेस स्थित आंबेडकर सभागार में एक संगोष्ठी हुई थी। प्रतिष्ठित दलित विचारक और नवगीतकार जगदीश पंकज की यह समीक्षा उसी संगोष्ठी में प्रस्तुत की गयी थी। 
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सौन्दर्य, सौन्दर्यशास्त्र, साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र। ये कुछ शब्द मेरे मस्तिष्क में घुमड़ने लगे जब मैंने चंचल चौहान जी की पुस्तक साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र  के शीर्षक के तौर पर इन शब्दों को देखा। सौन्दर्य क्या है? साहित्य का सौन्दर्य क्या है? दलित साहित्य का सौन्दर्य क्या है? और कुछ ऐसे ही प्रश्न उठते हुए इस विषय के संबंध में मेरी जिज्ञासा को बढ़ाने लगे। यद्यपि ‘साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र ‘ शब्दों के बारे में बहुत पहले सुना ज़रूर था कि इस विषय पर सुप्रसिद्ध समालोचक डॉ. रमेश कुंतल मेघ जी ने कोई पुस्तक अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा  शीर्षक से लिखी है, जो मुझे उपलब्ध नहीं हो सकी और जिसे मैं अभी तक भी नहीं पढ़ पाया। अतः जिज्ञासा जगना स्वाभाविक था और इसी ने मुझे यह पुस्तक पढ़ने को प्रेरित किया।
     मैं कोई साहित्यिक आलोचक नहीं हूं। एक अदना-सा रचनाकार होने के कारण जिस आलोचकीय विवेक की आवश्यकता होनी चाहिए, मैं स्वीकार करता हूं कि मुझमें वह नहीं है। अतः पुस्तक पर एक रचनाकार के तौर पर पाठकीय प्रतिक्रिया देना ही उचित समझता हूं। अत: कुछ बिन्दुओं पर अपने विचार प्रकट कर रहा हूं।
     पुस्तक में चंचल चौहान अपने मंतव्य को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं। उनका मानना है कि दलित साहित्य जिस आंबेडकर-फुले वैचारिकी को आधार बनाकर लिखा जा रहा है, वह अत्यंत व्यापक है जिसे सीमित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि सम्पूर्ण साहित्य की परख और सौंदर्य दृष्टि के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर पुस्तक की भूमिका में ही स्पष्ट किया गया है:
‘मनुवादी व्यवस्था में सदियों से पिसते हुए, शूद्र-अतिशूद्र की श्रेणी में डाले गये लोगों ने अभिव्यक्ति का अवसर मिलने पर भावपूर्ण रचनाएं कीं। मध्यकाल के अनेक संतों ने, ख़ास तौर से निर्गुण कवियों ने जात-पांत के भेदभाव के विरोध में आवाज़ उठायी।… बाबा साहब आंबेडकर ने बीसवीं सदी में उनमें जाग्रति की नयी चेतना पैदा की, जाति के कलंक से मुक्ति की कामना जगायी। इसी नव-जाग्रति से, पढ़े-लिखे दलित समाज ने अपने दमन-शोषण और उपेक्षा को साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से वाणी दी।… इस रचनाशीलता के विकास के लिए जब खुद दलित रचनाकार अपने साहित्य की परख के लिए सौंदर्यशास्त्र रचने की कोशिश में प्रवृत्त हुए तो उन्हें पढ़कर अहसास हुआ कि ज़रूरत सिर्फ़ दलित साहित्य के लिए ही आंबेडकरवादी सौंदर्यशास्त्र रचने की नहीं है, इससे तो उसका स्कोप सीमित किया जा रहा है। मुझे लगा कि जो नया पर्सपेक्टिव जोतिबा फुले और आंबेडकर ने हमारे समाज को दिया है, उससे एक सार्वभौमिक ‘दलित सौंदर्यशास्त्र’ की वैचारिकी निर्मित की जा सकती है; उसी विचार का यह प्रयोग है। इसलिए यह ‘साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र’ है, अकेले दलित साहित्य का नहीं जैसा कि कुछ रचनाकारों ने किया है।‘ ( पृष्ठ 10 -11, भूमिका )
     ‘साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र क्यों?’ शीर्षक अध्याय में इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया गया है। चंचल जी ने दलित सौंदर्यशास्त्र पर शरण कुमार लिम्बाले तथा ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा व्यक्त विचारों पर भी अपना मत व्यक्त किया है। लेखकीय और आलोचकीय विचारदृष्टि में भिन्नता हो सकती है। चंचल जी ने विभिन्न बिंदुओं को अपनी प्राध्यापकीय दृष्टि से देखने और विवेचन का प्रयास किया है। यहां यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इन दोनों दलित लेखकों ने न केवल उत्कृष्ट लेखन किया बल्कि दलित साहित्य के आलोचनात्मक शून्य को भरने का भी प्रयास किया जो उनसे पहले साहित्य की मुख्यधारा में भी उपलब्ध नहीं था। दार्शनिक अवधारणाएं निर्वात में पैदा नहीं होतीं बल्कि समाज में विद्यमान समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक व्यवहारों की वस्तुगत विवेचना से प्राप्त की जाती हैं। दोनों दलित चिंतकों की अवधारणाओं पर भारतीय और पाश्चात्य साहित्य और दर्शन के विश्लेषण का भी असर हो सकता है। चंचल जी ने मुक्तिबोध की सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि का उल्लेख करते हुए उनके लेख को पढ़ने का परामर्श दिया है ‘क्योंकि दलित लेखन में ‘घृणा’ एक कलात्मक मूल्य है, यह सवर्णों की सदियों की घृणा का प्रतिशोध है जिसे मूल्य के रूप में पहली बार दलित साहित्य ने रचा है, यह आश्चर्य की बात है कि इसे अपने सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन में न शरण कुमार लिम्बाले ने शामिल किया न ओमप्रकाश वाल्मीकि ने,’ और इसलिए फिलहाल इस अंतर्दृष्टि पर चंचल जी अपना कॉपीराइट समझा रहे हैं। (पृष्ठ 17)
     अपने विवेचन में चंचल चौहान अनेक बिंदुओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि दलित साहित्य के सामने आज जो चुनौती है, वह है ठहराव की। इसी ठहराव का प्रतिबिम्ब हमें किसी नये सौन्दर्यशास्त्र के न रच पाने में दिखायी देता है। मैं बड़ी विनम्रता से कहना चाहूंगा कि दलित आत्मकथाओं के बाद तथा आक्रोश की अभिव्यक्ति के बाद दलित साहित्य की क्षमताएं चुकी नहीं हैं। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम और वैश्वीकरण के इस युग में दलित लेखन की विषयवस्तु भी व्यापक स्तर पर मुखर हुई है। यह वस्तुगत परिस्थितियों के दलित दृष्टि से विवेचन और रचनात्मक सृजन से दलित लेखकों की कविताओं, कहानियों ,नाटकों आदि में व्यक्त हो रहा है। विषयों की विविधता और गुणात्मक, स्तरीय तथा चुनौतीपूर्ण लेखन के द्वारा ही मुख्यधारा के साहित्य के सामंतों को दलित साहित्य को स्वीकार करना पड़ रहा है और विभिन्न पत्रिकाओं ने दलित लेखन विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं। यह प्रसन्नता का विषय है कि चंचल जी अपने प्रश्न के उत्तर के लिए अंत तक आते-आते स्वीकार करते हैं, ’मुझे लगता है कि दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र रचने के बजाय हम पूरे साहित्य के आकलन के लिए आंबेडकरवादी नज़रिये से ‘साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र’ क्यों रचें?’ ( पृष्ठ 19-20)
     ‘सौन्दर्य चेतना की रचना-प्रक्रिया’ के अंतर्गत कुछ अकादमिक अवधारणाओं का विवेचन करते हुए सौंदर्यबोध और उसको अभिव्यक्त करने की जो व्याख्या की गयी है, उसका दार्शनिक और प्राध्यापकीय महत्त्व हो सकता है। इस अध्याय में जो उदहारण दिये गये हैं, वे ग़ैर-दलित हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं से उद्धृत किये गये हैं। इन विचारों से आगे के अध्याय में भी अति बौद्धिकता हावी है। इसके अंतर्गत भी दलित चिंतकों की मान्यताओं पर विचार प्रकट किये गये हैं और अंत तक आते-आते चंचल चौहान मानने लगते हैं कि
‘दलित सौंदर्यशास्त्र की तलाश में लिखे इस अपार साहित्य का अध्ययन न तो संभव है और न अब उसकी ज़रूरत ही लगती है, क्योकि सारी कोशिशें दलितों के लिखे रचनात्मक साहित्य के लिए आलोचना शास्त्र तैयार करने की है जबकि शिक्षा-दीक्षा से जो लेखकों को मिला है, उसी का दायरा और उसी की मैथडोलोजी उन्हें किसी नयी वैचारिकी की गहरी तलाश करने से रोकती है। शौकिया उस पुराने दायरे को ही ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ कहने की हड़बड़ी में सारे बौद्धिक लगे हैं। इस घटनाविकस का सकारात्मक पक्ष यह है कि ये कोशिशें एक उत्तेजक बहस को जन्म दे रही हैं, इसी बहस से सौन्दर्यशास्त्र की नयी दृष्टि और दिशा के उभर की सम्भावना दिखायी दे रही है।’ (पृष्ठ 41 )
     आगे के अध्यायों में चंचल जी ने सौन्दर्यशास्त्र पर प्राचीन और आधुनिक दार्शनिक व्याख्या की है जो मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद के उस समन्वित रूप को एक आवश्यक कसौटी के रूप में प्रस्तुत करता है जो भारतीय समाज और साहित्य की जटिल संरचना को द्वंद्वात्मक रूप में भी प्रकट कर सकता है। वे कहते हैं:
‘दलित सौन्दर्यशास्त्र दुनिया के साहित्य में निहित गुलामगिरी की क्लासिकल विचारधारा की पहचान करने में सक्षम है, यह एक नया साहित्यिक सौन्दर्यशास्त्रीय टूल हो सकता है। इसमें ज्ञान के वे सभी अध्ययन शामिल होंगे जो मनुष्य और मनुष्य के बीच नाबराबरी और गुलामगिरी से मुक्ति का सपना हमें देते हैं।’ (पृष्ठ 53)
     दलित वैचारिकी और उसके रचनात्मक उद्भव और विकास तथा तुलनात्मक अध्ययन के लिए चंचंल चौहान भक्तिकाल के कवि कबीर तथा तुलसी की रचनाओं को उद्धृत करते हैं। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक वर्ण-व्यवस्था और उसके घृणित प्रभाव पर भी चर्चा की है। मेरे विचार से ये अध्याय पुस्तक में जोड़ने से केवल कलेवर ही बढ़ा है , विषय का विस्तार नहीं। आगे के अन्य अध्यायों में भी अकादमिक महत्त्व के कुछ तत्व हो सकते हैं जिनका शोधार्थियों और अध्येताओं के लिए महत्त्व हो सकता है किन्तु रचनात्मक साहित्य से जुड़े लोगों के लिए नहीं।
     ‘कुछ हिन्दी रचनाओं पर प्रयोग’ शीर्षक के अंतर्गत ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन और तुलसीराम की मुर्दहिया  तथा मणिकर्णिका  के अलावा सभी गैर-दलित लेखकों/कवियों की रचनाओं पर ही विचार किया गया है। इसमें दलित रचनाकारों की आत्मकथाओं के अतिरिक्त अन्य रचनाओं पर विचार किया जा सकता था।
     एक रचनाकार के तौर पर मेरा अपना अनुभव है कि रचनाकर्म के दौरान कोई रचनाकार केवल अपने सरोकारों से बंधकर लेखन करता है जो उसके अनुभव और अध्ययन के आधार पर भावात्मक और ज्ञानात्मक संवेदना की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है। उस समय वह किसी दार्शनिक दृष्टिकोण को साग्रह व्यक्त नहीं करता किन्तु उसका अपना वैचारिक दृष्टिकोण स्वतः रचना में प्रकट हो जाता है। दलित साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। स्वानुभूति-समानुभूति-सहानुभूति रचना में प्राण-तत्व होता है जिनके धनत्व के आधार पर रचना उसी अनुपात में उत्कृष्टता प्राप्त करती है।
     कोई भी कृति सहमति-असहमति के आधार पर मूल्यांकित होती है। दलित साहित्य विशेषकर दलित कविता भी उसी तरह निकष पर परखी जाती है। यह संभव है कि परखने के मौजूदा प्रतिमान दलित कविता/कहानी को परखने में असहज अनुभव करते हों तो नये प्रतिमान और नयी परम्परा खोजने की ज़रूरत है न कि दलित साहित्य को कलात्मक आधार पर नकारने की।
     प्रस्तुत पुस्तक की कुछ अवधारणाओं से असहमति हो सकती है किन्तु पुस्तक के लेखक का प्रयास और श्रम सराहना योग्य है जिसने ऐसे गम्भीर और दार्शनिक विषय को सरलता से समझाने का प्रयत्न किया है। चंचल जी बधाई के पात्र हैं। इसी के साथ मैं अपनी आपत्तियां भी दर्ज कराना आवश्यक समझता हूं। चंचल जी ने अपने वर्ष 2002 में कथा-क्रम  में प्रकाशित लेख को पुस्तक में दिया है तथा प्रस्तुत पुस्तक वर्ष 2022 में प्रकाशित हुई है। इस बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका है और निहित स्वार्थियों द्वारा गंगा को मैला भी किया जा चुका है। इस बाईस साल के कालखंड में दलित साहित्य चुका नहीं है बल्कि बहुत समृद्ध हुआ है और तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य को चुनौती दे रहा है। इसका यह उदाहरण ही काफ़ी है कि अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने दलित साहित्य पर अपने विशेषांक निकाले हैं। यदि चंचल जी इन दलित साहित्य के विशेषांकों पर ही नज़र डाल लेते तो उन्हें उत्कृष्ट दलित साहित्य की मात्रात्मक और गुणात्मक समृद्धि का पता चल जाता और वे दलित साहित्य के चुक जाने की बात नहीं कहते।
     अधिकतर मामलों में देखने में आया है कि गैर-दलितों द्वारा दलित विषयों पर लिखा गया लेखन कोरे शब्दजाल में उलझाकर और दलित वैचारिकी की शब्दावली का उपयोग करके उसको भ्रमित और विकृत करने के उद्द्श्य से किया गया लेखन रहा है। उसी तरह बाबासाहब आंबेडकर का नाम लेकर और उनकी मान्यताओं, स्थापनाओं, मौलिक अवधारणाओं की ग़लत व्याख्या करके दलितों के बीच इस प्रकार प्रस्तुत कर दिया गया है कि जैसे उनका निष्कर्ष बाबासाहब की मान्यताओं के अनुरूप है। यह बड़ी चालाकी से दक्षिणपंथ के चतुर खिलाड़ियों द्वारा स्वयं तथा कहीं-कहीं पर ढुलमुल दलित लेखकों द्वारा लिखवा कर किया जा रहा है। अतः यह ज़रूरी है कि दलित विषयों पर लिखे जा रहे साहित्य या साहित्यिक आलोचना को दलित दृष्टि से परखा जाए। विषय पर व्यक्ति-केंद्रित न होकर रचना-केन्द्रित विमर्श को वरीयता देते हुए रचना के कथ्य और शिल्प के सौंदर्य पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। कथ्य का सौंदर्य उसकी अंतर्वस्तु की सम्पुष्ट प्रतिबद्धता तथा शिल्प का सौंदर्य उसके शिल्प या भाषा-शैली के सौंदर्य का विवेचन है। यहीं पर पात्र का सौन्दर्य वर्णन और पात्र के द्वारा प्रकट किया जा रहा सौन्दर्यबोध ही प्रकारांतर से साहित्य का सौंदर्यबोध है जो साहित्य के सौंदर्य शास्त्र का आधार बनता है।
     दलित साहित्य के बारे में आलोचकों के विचार उसके खुरदरेपन को लेकर हैं। जब दलित चेतना अपने परिपक्व रूप में सवालों से जूझ रही है तब वहां किसी लालित्य की खोज करना बेमानी है। वहां दलित साहित्य खुरदरेपन के सवाल ही पूछेगा जो वर्चस्वशाली मुख्यधारा के मठाधीशों को असहज कर देते हैं। दलित कविता पर सौंदर्यबोध की घिसी-पिटी अवधारणाएं लागू करने से सही दृष्टि और निष्कर्ष सामने नहीं आ सकते। अभिजात सौंदर्यशास्त्र जिस सौंदर्य की बात करता है, दलित कविता के रचना संसार में उससे भिन्न स्वाभाविक और वास्तविक श्रमजीवी सौंदर्य का चित्रांकन होता है। सौंदर्य और कल्पना के जिस अमूर्त और वायवीय उत्कर्ष को मुख्यधारा नख-शिख वर्णन में देखती है, वह दलित कविता में श्रमशील पेशियों की जकड़न और बच्चे को कमर से लटकाये जीविका के लिए निर्माण कार्य में जुटी स्त्री का शरीर, सौंदर्य का वर्ण्य विषय है। दलित साहित्य में सिर पर गट्ठर लिये अबाध गति से बोझा ढोती महिला का सौंदर्य उसकी श्रमशीलता में है न कि बिना कोई काम किये सजने-संवरने वाली स्त्री की सुंदरता में है। कीकर के तने पर कुल्हाड़ी से निरन्तर वार करते हुए लकड़ी चीरने वाले या कमर पर सामान से भरे बोरे के बोझ को ढोते हुए सर्वहारा दलित की तनी हुई देह का चित्रण दलित कविता के केन्द्र में रहना किसी भी रूप में कमतर नहीं है। दलित सौन्दर्य बोध में धरती से जुड़े श्रमशील व्यक्ति का शब्दांकन है, न कि श्रम से दूर रहने वाले सजे-संवरे शरीर की आकर्षक कामातुर मुद्राएं।
     अंत में, मैं अग्रज चंचल चौहान जी को गंभीर विषय पर एक उत्कृष्ट आलोचनात्मक कृति प्रदान करने के लिए हृदयतल से बधाई और शुभकामनाएं देता हूं।
मोब. : 8860446774

1 thought on “दलित कविता में सौन्दर्यबोध और सौन्दर्यशास्त्र / जगदीश पंकज”

  1. वरिष्ठ कवि जगदीश पंकज जी ने नवगीत कविताओं में लगातार दलित चेतना से सम्पृक्त, दलित समूह की दृष्टि से समय को, समस्याओं को देखने और लिखने का काम किया है। उनकी नवगीत कवीताओं में बहुत गहराई से ऐसे प्रश्नों को उठाया गया है, जिनका सम्बन्ध दलित जीवन और उनकी समस्याओं से है। जगदीश पंकज जी की सामाजिक और ऐतिहासिक समझ बहुत बढ़िया है। चंचल चौहान जी की पुस्तक पर उनका यह आलेख भी उनकी गहन दृष्टि को दिखाता है।

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